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जैन धर्म में तप कारण ध्यान के भी दो भेद किये गये हैं शुभ-प्रशस्त ध्यान और अशुभ---. अप्रशस्त ध्यान ! अशुभ ध्यान दो प्रकार का है और शुभ ध्यान भी दो प्रकार का है-इस तरह घ्यान के कुल चार भेद हो गए । शास्त्र में बताया है
चत्तारि झाणा पणत्ता तं जहा
अट्टे झाणे, रोद्दे झाणे, धम्मे झाणे सुक्के झाणे ।' ध्यान के चार प्रकार कहे हैं--आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान ! ___ यद्यपि मूल आगमों में और प्राचीन आचार्यों ने इन अशुभ व्यानों को भी 'ध्यान' की संज्ञा दी है, और वह इसीलिए कि वह भी मन की एकार .. दशा तो है ही। बिल्ली चूहे पर, बगुला मछली पर और छिपकली कीड़ों मच्छरों पर कितनी दत्तचित्त होकर घात लगाए बैठती है, मन में पाप है, करता है, किन्तु एकाग्रता तो होती ही है-इस कारण वह भी 'ध्यान' माना है, हां, वह अशुभ ध्यान है। किन्तु बाद के कुछ आचायों ने तो अशुभ ध्यानों को 'ध्यान' के पद से ही हटा दिया है। उनका कहना है, 'ध्यान' जैसे पवित्र शब्द को इन अशुभविचारों के लिए प्रयोग ही क्यों किया जाय ? इसलिए . आचार्य सिद्धसेन ने ध्यान की परिभाषा भी यही कर दी-शुभंकप्रत्ययो ध्यानम् शुभ और पवित्र आलम्बन पर एकान होना ध्यान है। ..
कुछ लोग कहते हैं-ध्यान में मन को रोक दिया जाता है, किन्तु साधारण साधक के लिए मन को रोक पाना बहुत कठिन है। मन गतिशील हैं, वह .. कभी वहिर्मुखी होकर दौड़ता है और कभी अन्र्तमुखी हो जाता है । उसकी गति का कुछ न कुछ आलम्बन होता है । जब किसी बुरी वस्तु को देखता है तो उसी के आधार पर वह अशुभ विचार करने लगता है, विचारों में जब गहरा लीन हो जाता है तो वह अशुभ ध्यान करने लगता है. यदि आलम्बन अच्छा व गुभ मिल जाय, कोई भव्य व श्रेष्ठ वस्तु पर मन टिक जाय तो विचार भी शुभ हो जाते हैं, विचारों की लीनता बढ़ती है तो शुभ ध्यान हो
१ स्थानांग म४ २ द्वानिगद् द्वामितिका १८१११