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रहता है तब तक उस विषय का 'ध्यान' होता है । इसलिए 'ध्यान' का प्रथम अर्थ है-मन का एक विषय में स्थिर होना ।
ध्यान तप
ध्यान की दो धाराएँ
प्रश्न हो सकता है— मन का किसी विषय में स्थिर होना ही यदि ध्यान है तो फिर तो कोई कामी पुरुष यदि किसी स्त्री के रूप पर आसक्त होकर उसी का चिंतन करता हो, लोभी धन कमाने की योजना में ही मशगूल बना हो और कोई हत्यारा, चोर, पड्यन्त्र कारी अपनी स्कीम जमाने में यदि गहरा चिंतन करता हो तो वह भी एक विचार में लीन होता है क्या उसे भी ध्यान कहा जायेगा ?
पर दोनों में अन्तर
इसका उत्तर 'हां' में ही मिलेगा । वह पापात्मक चिंतन भी 'ध्यान' तो है ही । और इसीलिए आचार्यों ने 'ध्यान' के दो भेद किये हैं- शुभ ध्यान और अशुभ ध्यान ! जैसे एक गाय का दूध, और एक थूहर का ! दूध तो दोनों ही सफेद है और दोनों को ही दूध कहा जाता है, कितना है— एक जहर है एक अमृत ! एक ( थूहर का ) दूध मार डालता है - एक ( गाय का ) दूध जीवनी शक्ति देता है । इसी प्रकार ध्यान-ध्यान में अन्तर है। एक ध्यान शुभ होता है एक ध्यान अशुभ ! शुभ ध्यान मोक्ष का हेतु है, और अशुभ ध्यान नरक का ।
मन की गति जब बहिर्मुखी होती है-विषयों में, धन, परिवार आदि की चिन्ता में, मोह और लोभ में तथा क्रूरता विषयक हिंसा प्रधान विचारों में जब वह खोया रहता है तो उसकी धारा नीचे की ओर वहती है, अशुभ की ओर चलती है । और जब मन पवित्र विचारों से भरा होता है, दया, करुणा, कोमलता, भक्ति, विनय एवं आत्मस्वरूप का चिंतन करता हुआ अन्तर्मुखी होता है, तो उसकी धारा भी ऊर्ध्वमुखी होती है, वह शुभ की और गति करता रहता है ।
चित्त रूप नदी की दो धाराएं हैं-चित्तनाम नदी उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय पापाय च चित्त नाम की नदी दोनों ओर बहती है, कभी कल्याण की ओर और कभी पाप की ओर ! चित्त की उभयमुखी गति के