________________
प्रतिसंलीनता तप
३६६
यह पूजा भी है ___शरीर अवयवों का संकोच करने वाला प्रसंगानुसार चार बातों में निपुण हो सकता है।
१ सभा आदि में शिष्टता सभ्यता के रूप में
२ गुरुजनों के समक्ष विनय-भक्ति के रूप में .. ३ प्रभु के समक्ष पूजा के रूप में
४ अपने आप के समक्ष संयम साधना के रूप मे
सभ्यता का प्रसंग ऊपर बताया जा चुका है। विनय के सम्बन्ध में आगमों में स्थान-स्थान पर बताया गया है-गुरुजनों के सामने पैर फैलाना, हाथ फैलाना, बार-बार उठना-बैठना, आंखें मटकाना, बीच में बोलना, यह सब अविनीत शिप्य के लक्षण हैं । विनीत शिष्य शरीर की इन चंचल वृत्तियों को त्याग कर,गम्भीरता के साथ-सायपेही-गुरुजनों की प्रसन्नता का ध्यान रखता है। . शरीर आदि का संकोच करने से ही प्रभु पूजा या प्रभु भक्ति रूप उपासना की जा सकती है। हाथ, पैर, सिर आदि का संकोच करके उन्हें विधिपूर्वक प्रभुचरणों में झुकाना-यह वन्दना की विधि है, इसे भक्ति एवं पूजा कहा गया है । आवश्यक सूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य नमि ने कहा है-करशिरः पादादि सन्यासो द्रव्य संकोचः (द्रव्यपूजा) भाव संकोचस्तु विशुद्ध मनसो नियोगः ।" हाथ पैर सिर आदि को स्थिर करना द्रव्य संकोच अर्थात् द्रव्य पूजा है और मन को विशुद्ध कर प्रभु भक्ति में लीन करना-नाव संकोच-अर्यात भाप पूजा है । यही बात नाचार्य अमितगति ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्ध श्रावकानार में कही है
बचोविग्रह-संकोचो द्रव्य पूजा निगद्यते ! तत्र मानस संफोघो भायपूना पुरातनः ।
है उत्तराध्ययन १६१८-१६-२०,