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जैन धर्म में तप
आत्मवान साधक जो भाषा बोले- वह हृष्ट (अनुभव की हुई देखी हुई) हो, संक्षिप्त हो, सन्देह रहित हो, परिपूर्ण (अधूरी, तोड़ मरोड़ को हुई न) हो, और स्पष्ट हो । किन्तु साथ में यह भी ध्यान में रखे कि वह बात, यह भाषा वाचालता से रहित हो, तथा उसे सुनने पर किसी का मन उद्विग्न होता हो सीन हो ! यह भाषा सत्र को हितकारी तथा सब को वृद्ध हियमाणुलोमियं ऐसी भाषा का प्रयोग करना यह उदीरणा है।
प्रिय हो - चइज्ज
कुशल वचन की
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मौन का अर्थ
वचन प्रतिसंलीनता का तीसरा भेद है--वचन योग को एक करना । जैसे मन को स्थिर करना तथा मन का निरोध करना - एकाग्रता कहलाती है वैसे ही वचन की स्थिरता एवं वचन योग का निरोध करना मौन कहलाता है । कुदाल वचन बोलना वचन ( भाषा) समिति है, तथा अकुशल वचन का निरोध करना एवं मोन करना वचनगुप्ति । कहीं-कहीं पर आगा कुशल वचन-निरद्य वचन को दोनों ही रूप दिये है । जैसा कि नाचार्य संपदासगण ने कहा है
कुसल वह उदीरंतो जं यगुत्तो वि समिओवि । ' कुशल वचन (निरवद्य वचन) बोलने वाला बचन समिति का भी पालन करता है और वचन नृप्ति का भी !
पवन गुप्ति एक प्रकार
मन है ! फिर प्रश्न होता है सना जानेमन के लिए है
भी मोन हो सकता है ?
१ मा च न बोलना-मोन है
२
निरोध करना-नौन है।
मुनि शब्द की व्याख्या करते हुए कहा जाता है--नामुनिः पाने में मुहिम कभी नहीं और यमुना ? अममा मोन दिना उही पत्रक ?
-2 मनाया एयर