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जैन धर्म में प
इसी प्रकार अन्य अनेक अणगार व गृहस्यों का भी जहां वर्णन आता है वह पहले तपस्या, फिर संलेखना और उनके साथ अनशन स्वीकारने की चर्चा बाती है । बाचारांग सूत्र का वह उल्लेख भी हमारे समक्ष है जिसमें बताया है कि नाधु जब यह देखे कि यह शरीर अब जीपं हो रहा है, मुझे हलने चलने में भी ग्लानि हो रही है तब वह धीरे-धीरे तपस्या द्वारा शरीर त्याग करने की ओर बढ़े।
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इन सब उपरणों से यह ज्ञात होता है कि याववजीवन अनशन के पूर्व उनको भूमिका भी तैयार होनी चाहिए और वह भूमिका है संसना ! तों में लगे हुए अतिचारों की आलोचना के साथ जो तपस्या की जाती है, जिससे कि दोष विशुद्धि होकर आत्मनिर्मलता व समाधि प्राप्त होती हैयह है संसना ! संलेखना की व्याख्या करते हुए बताया गया है-- सम्पर्क -फपाय लेपना-संलेखना | काय शरीर एवं कपाव-प्रमाद विकार लेखना करना-सानोचना आदि करके
फाय
आदि की सम्यक प्रकार करना इसका नाम है
ना। संतराना के साथ आगमों में are:---- पच्छिम मारणांतिक शब्द आते है जिसका अर्थ होता है, उसके बाद में अन्य कोई संराना आदि शेष नहीं रहती वही अंतिम होती है और मरणका तक चलती है । जीवन के अंत में अनशन से पूर्व यह एक प्रका
है, जिसके द्वारा साधक पूर्ण विशुद्ध स्थिति में
स्वीकार करता है । भूतकालीन समस्त दोषों, पारस अपने दी
वन निर्माण बना है और पूर्ण
दिगम्बर आचार्य यदि विविध सायनिक अवयव
कामना आया है।
हो जाता है।
भी यही कहा-जीवन में आरि अनशन
॥
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विचारों की आ
है
समिति १२
अम९७७ भाकामा पार्ट
पूर्वको दृष्णमृमार
हा