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कायोत्सर्ग ( व्युत्सर्ग)
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काउसग्गेणं तीय पडुप्पन्न पायच्छित्तं विसोहेइ, विसुद्धपाय च्छित्ते य जीवे निव्वुयहियए ओहरियभारुव्वं भारवाहे पसत्थभाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ ।
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जैन धर्म में तप
- उत्तराध्ययन २६।१२
कायोत्सर्ग (ध्यान) करने से जीव अतीत एवं वर्तमान के दोषों की विशुद्धि करता है और प्रायश्चित्त के द्वारा सिर पर से भार उतर जाने से भारवाहकवत् हल्का होकर सद्-ध्यान में रमण करता हुआ सदा सुखपूर्वक विचरण करता है ।
व्युत्सर्गार्हं यत्कायचेष्टा निरोधतः ।
- स्थानांग टीका ६
शरीर की चपलताजन्य चेष्टाओं का निरोध करना व्युत्सर्ग तप है । इन्द्रियमनसोर्नियमानुष्ठानं तपः ।
- नीतिवाक्यामृत १।२२
पांच इन्द्रिय (स्पर्शन, रसना घ्राण चक्षु श्रोत्र) और मन को वश में करना या बढ़ती हुई लालसाओं को रोकना तप है |