SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 619
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1 परिशिष्ट २ ५५५ न केवल विद्या से और न केवल तप से पवित्रता प्राप्त होती है । जिसमें विद्या और तप दोनों ही हों, वही पात्र कहलाता है । २५ २६ २७ २८ सम्मानात् तपसः क्षयः । ३० सम्मान से तप का क्षय हो जाता है । - आपस्तम्ब स्मृति १०६ वेदस्योपनिषत् सत्यं, सत्यस्योपनिषद् दमः । दानस्योपनिषत् तपः । दमस्योपनिषद् दानं, - महाभारत शान्ति पर्व २५१।११ इन्द्रियों का संयम, संयम वेद का सार है सत्य वचन, सत्य का सार है का सार है दान, और दान का सार है 'तपस्या' । तपो हि परमं श्र ेयः सम्मोहमितरत्सुखम् । - वाल्मीकि रामायण ७१८४/६ तप ही परम कल्याणकारी है । तप से भिन्न सुख तो मात्र बुद्धि के सम्मोह को उत्पन्न करने वाला है । तपसैव महोग्रेण यद् दुरापं तदाप्यते । - योगवाशिष्ठ ३१६८१४ जो दुष्प्राप्य वस्तुएं हैं, वे उग्रतपस्या से ही प्राप्त होती हैं । २ ध्यानयोगरतो भिक्षुः प्राप्नोति परमां गतिम् । ध्यान योग में लीन मुनि मोक्षपद को प्राप्त करता 1 - शंखस्मृति ओमित्येव ध्यायथ ! आत्मानं स्वस्ति वः । पाराय तमसः परास्तात । - मुण्डकोपनिषद् शशा इस आत्मा का ध्यान ॐ के रूप में करो ! तुम्हारा कल्याण होगा अन्धकार दूर करने का यह एक ही साधन है ।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy