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जैन धर्म में तप..
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डालते हैं, स्वास्थ्य चौपट कर डालते हैं। कंडरीक का उदाहरण भी मापके सामने दिया गया है, वह साधुत्व से भ्रष्ट होकर कुछ दिनों में ही क्यों मर गया ? इसका कारण स्पष्ट बताया गया है-अति मात्रा-में भोजन- . पान रस आदि विषयों में गृद्ध होकर । रात-दिन स्वादिष्ट-गरिष्ठ भोजन करता रहा, वह हजम नहीं हुआ, शरीर में रोग फूट पड़ा। रोग होने पर . भी स्वादिष्ट-गरिष्ट भोजन छोड़ नहीं सका, रोग बढ़ता गया और अंत में दुःख पाता हुआ मरकर सातवीं नरक में गया ! ..
भोजन में जब ऐसी लोलुपता आ जाती है तो उनके सामने जीवन और स्वास्थ्य का भी कोई महत्व नहीं रहता, वे तो बस खाना ! साना ! यही रट लगाये रहते हैं। किंतु यह अन्न-मूढ़ व्यक्तियों की बात हुई । साधारणतः विचारशील भोजन करता है तो उसमें संयम भी बरतता है, उस भोजन का उद्देश्य भी होता है । गांधी जी से किसी ने पूछा-"आप भोजन मिसलिए करते हैं ?" गांधी जी ने कहा-"दास की तरह शरीर को पालने मे लिए।" कवीरदास जी ने भी यही बात कही है- कि भूख एक पुतिया है, ... यह भौंकने लगती है तो हमारा चित्त चंचल हो उठता है, मन अशांत हो जाता है, अत: मन को शांति बनाये रखने के लिए और स्थिरता के साय भजन करने के लिए इस भूख-कूतरी को रोटी का टुक्या दालना जरूरी है
"भूख कचौरा कूतरी करत भजन में मंग।" बस भोजन करने का यही उद्देश्य है- क्षुधा शांत फार साधना मो रहना । विचारलों ने भोजन करने वालों को तीन श्रेणियां की हैं१-स्वाद के लिए भोजन करने वाले-ये अशानी और मृगं लोग हैं, से
याद की चाट में बर्वाद हो जाते हैं, मगर व धन को चौपट कर आरन
यह सबसे नीची अंगी है। २~स्यास्य को लिए भोजन करने वाले से जीवन को बाबत माग करने वाले लोग है। शरीर व स्वारको रक्षा का पद्धि करना उनमा उद्देश्य है। ये स्वाद के लिए गंगा भी गाते हैं पर याद