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________________ व्युत्सगं तप : ५२३ काया का उत्सर्ग करके जीवन के मोह पर विजय प्राप्त की थी। भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के जीवन प्रसंग तो आज भी हमारे सामने जैसे बोल रहे हैं। विकराल दैत्यों के अट्टहास, उपसर्ग एवं प्राणांतक पीड़ा देने पर भी वे प्रसन्न और आनन्द मग्न बने रहे। इस का रहस्य और कुछ नहीं, यही कायोत्सर्ग की साधना थी! काया को धारण करते हुए भी काया की अनुभूति, काया की ममता से वे मुक्त हो गये थे। इसीलिए वोसट् ठकाए, योसठ्ठचत्तदेहे-जैसे विशेषणों द्वारा उनको ध्यान स्थिति का चित्रण किया गया है । बस, काया की ममता छूट गई, प्राणों का मोह छूट गया तो साधक प्राण-विजेता, अर्थात् मृत्यु-विजेता बन गया । व्युत्सर्ग तप में सबसे प्रमुख कायोत्सर्ग ही है, यही कारण है कि आगमों में कहीं-कहीं फाउस्सग्ग को ही पूर्ण व्युत्सर्ग तप बता दिया है। अर्थात् कायोत्सर्ग में जो साधक सिद्ध हो गया, वह सम्पूर्ण व्युत्सर्ग तप में ही सिद्ध हो गया। अनशन से प्रारम्भ करके व्युत्सगं तक यह बारह तपां का एक अस्सालित कम है, तपधारा का असण्ड निमंल प्रवाह है जो उद्गम से लेकर विलय तक निरंतर विकास-विस्तार पाता हुआ मुक्ति-महासागर के अनन्त नुन-गर्भ में विलीन होता है। जैनधर्म की इस तपःसाधना में एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सुन से दुर्वल, और महानमात्तिनानी पुरुष--- अपनी शक्ति के अनुसार, या और पुस्पा के अनुसार इस तपोमानको आराधना कर सकता। छोटे से छोटा प्रत-त्याग-पास पोल्पी (सिर्फ वाई-तीन घंटा का आहारयाग). करके भी माप की आराधना प्रारम्भ की जा सकती है, और फिर गोरी तो रोगी-भोगी-गोगी - हर कोई कर सकता है भोजन के पिय में विविध प्रकार ने नहर भी किया जा सकता है। इस तरह की सलाम साधना भी बनाई गई है, और धीरे-धीरे सन-पान-उप पाने पर कठोर भोपान, मन और बाघोसन की सपना के द्वारा माल की उनी नाटी पर पहुंच सकता है। ..
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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