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व्युत्सर्ग तप
५१५ नहीं सकता। शरीर की ममता घटाने के लिए उसे प्रतिक्षण यह भावना फरनी चाहिए-कि शरीर मेरा नहीं है, मुझे इस शरीर से कुछ आध्यात्मिक लाभ उठाना है । कायोत्सर्ग की साधना साधक के जीवन की प्रतिदिन की साधना है। प्रतिक्रमण में बार-बार जो यह पाठ बोला जाता है-अप्पाणं वोसि रामि ठाएमि फाउस्सगं उसका भाव यही है कि देह के प्रति अममत्व का भाव बार-बार मन में जगता रहना चाहिए । सिर्फ प्रतिक्रमण के समय में ही नहीं, किन्तु रात-दिन साधना के समय मन में इस प्रकार के संकल्प जगते रहने चाहिए और क्षण-क्षण कायोत्सर्ग की भावना करनी चाहिए। भगवान ने कहा है-~-अभिक्खणं फाउस्सग्गफारी' अभीक्षण-प्रतिक्षण कायोत्सर्ग करता रहे, अर्थात् हर समय देह की ममता से दूर रहने का अभ्यास करता रहे । साधक के प्रत्येक चिंतन में, प्रत्येक सांस में यह भाव गूंजता रहे
अन्न इमं सरीरं मन्नो जीव त्ति शरीर अन्य है, जीव-आत्मा अन्य है, और इसी भाव की अनुभूति हृदय में प्रतिक्षण करता रहे।
फायोत्सर्ग में ध्यान - कायोत्सर्ग का अधं सिर्फ यह नहीं है फिशरीर की चंचलता का त्याग कर, वृक्ष की भांति,पर्वत की तरह पा काट की भांति निप्पंद सड़े हो जाना। . माम इतने से कार्य के लिए कायोत्सर्ग नहीं किया जाता। मूल बात तो यह है कि शरीर की निष्पंदता तो एकेन्द्रिय आदि प्राणियों में भी हो सकती है, पर्वत पर चाहे जितने प्रहार करो, यह कय मंचन होता है और कर किसी पर रोप करता है ? किन्तु बत् निष्पंदता और स्थिरता तो जड़ (अविसित. प्रापी) ली स्थिरता है । सतन स्थिरता नहीं। इसीलिए वेन आचामों में कामोत्सननी यो प्रसार बताए है-म कायोत्सर्ग और भाप कायो. सर्ग आधा जिनदास गनी ने बताया ई
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शालिक लिहा fruit .