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तपस्वियों की अमर परम्परा
भूघर
रघुनाथ
जयमल
भोपत सी
वेनीदास आदि मिश्री' पोनो तप पेग को ।
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भगवान ऋषभदेव से गौतम
जैन धर्म के आदि तीर्थंकर भगवन ऋषभनाथ एक वर्ष तक कठोर तप करते रहे, भूख-प्यास के भयंकर कष्टों को हंसते-हंसते सहते रहे और जनपद में घूमते रहे । बाहुवली एक वर्ष तक जंगल में खड़े रहे, न खाना-न पीना, न सोना न बैठना ! वृक्ष की भांति अचल ध्यान मुद्रा में खड़े हुए तो पूरा वर्ष ही बीत गया, खड़े ही रहे, पक्षियो ने शिर पर घोंसले डाल लिए, लताएँ वृक्ष की तरह शरीर पर लिपट गई फिर भी वे तप करते रहे ।
भगवान महावीर का तप तो आज भी लोमहर्षक सत्य है । कितने भयंकर कष्ट ! उपसगं ! कितनी लंबी-लंबी तपस्याएँ । आचार्य भद्रबाहु ने कहा है- २३ तीर्थकरों के कष्ट उपसर्ग एक ओर भगवान महावीर का तप एक ओर ! कितना दुर्धर्ष तप था उनका । सिहों की दहाड़ ! दैत्यों के अट्टहास, तूफानो की संज्ञावात ! फिर भी कभी क्षुब्ध नहीं हुए, मन चंचल नहीं हुआ ! साढ़े बारह वर्ष के साधना काल में सिर्फ ३४६ दिन पारणा भोजन ग्रहण किया बाकी लगभग साढ़े ग्यारह वर्ष तक तपस्या ! उपवास बादि में लीन रहे । धन्ना अणगार की तपस्या को देखकर तो स्वयं भगवान महावीर ने राजा श्रेणिक से कहा
इमेसि चोद्दसहं समणसाहत्तीणं घन्ने अणगारे महादुवफरफारए चेव ।
इन चौदह हजार श्रमणों में घना अणगार महान दुष्कर और कानप करने वाला है । तप करते-करते उसका शरीर एकदम जर्जर लकड़ियों की भांति गुसा रक्त-मांस रहित हो गया । जिसे देखकर श्रेणिक ने भी दांतों तले अंगुली दबानी ।
इसीप्रकार नंदपेण, स्कन्दक, गणधर गौतम, जैसे अनेक उपस्वी प्राचीन परम्परा में होगए जिनके तपस्तेज से आज भी इतिहास जगमगा रहा है।
१ आवश्यकनियुक्ति गापा ५३४
म २१३६