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तपस्वियों की अमर परम्परा
जैन परम्परा में तप का सिर्फ सैद्धान्तिक महत्व ही नहीं रहा है, यिन्तु आचरण में भी उसका अपार महत्त्व रहा है। जैसे दूध के कण-कण में घृत . रमा हुआ है, फूलों की कली-कली में सौरभ वसा हुआ है और ईस के पोरे । पोरे में माधुर्य छलकता रहता है वैसे ही जैन साधकों के जीवन के प्रत्येय कण में, प्रत्येक रूप में तप समाया हुआ है । उनका हर व्यवहार तपोमय होता है, वहाँ तप जीवन की रसायन के रूप में प्रयुक्त होता रहा है । एक से एक बढ़कर तपस्वी, ध्यानी, मौनी वहां हुए हैं जिनका जीवन मोदक की तरह तप का परिपूर्ण माधुर्य लिए हुए है। देखिए
प्रथम जिनेन्द्र तप धारयो एफ अन्द अहा, - बाहुबलो ताहि भांति ग्रही तप तेग को। त्रिशला सपूत, तप फोनो तो अभूत जग ___घना नंदोषेण भर देखो मुनि मैप को। पन्दना र काली राणी दस को यपान पढ़ो, .
विचित्र तपस्या तपी बरी शिव वेग को। .