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प्रति संलीनता तप
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अर्थ क्या है—इसे समझने के लिए जैन एवं वैदिक ग्रन्थों का सूक्ष्म अवलोकन करना चाहिए ।
योगदर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने कहा है – योगश्चित्तवृत्ति निरोधः १ चित्त वृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं । गीता में समता को योग कहा है - समत्वं योग उच्यते । बौद्ध आचार्यों ने - कुशल प्रवृत्ति अर्थात् सत्प्रवृत्ति को - कुशल प्रवृत्तिर्योगः योग कहा है । जबकि जैन परिभाषा में योग का अर्थ इनसे प्रायः भिन्न ही है । यद्यपि भगवान महावीर के पश्चाद्वर्ती वाचार्यों ने योग के अर्थ को कुछ संशोधित कर वैदिक परिभाषा के निकट लाने का प्रयत्न किया है, जैसा कि आचार्य हरिभद्र सूरि ने कहा है
मोक्खेण जोयणाओ, जोगो सव्वोपिधम्म ववहारो 13 - जो आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ता है वह सभी धार्मिक व्यवहार योग है | आचार्य हेमचन्द्र ने भी योग को इसी परिभाषा में विठाया हैमोक्षोपायो योग: ४- मोक्ष का जो उपाय है, वही योग है । किन्तु प्राचीन आगमों में योग' शब्द का अर्थ कुछ दूसरा ही है । वहां — योग को परिभाषा तो नहीं मिलती, किन्तु योग के तीन भेद मिलते हैं- मनोयोग, वचन योग तथा काययोग | इनसे यह स्पष्ट होता है कि कायवाङ्मनो व्यापारो योग: " -- शरीर, वचन एवं मन का व्यापार-.: -- इनको हलन चलन रूप प्रवृत्ति को योग कहा गया है । मन की प्रवृत्ति को मनोयोग, वचन की प्रवृत्ति को वचनयोग तथा काया की प्रवृत्ति को काययोग कहा गया है । इन योगों की प्रवृत्ति शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार को हो सकती है, लतः योग शुभ भी होता है तथा अशुभ भी ! अन्य परिभाषाओं में तथा आगम की इस परिभाषा
१ पातंजल योग दर्शन ११२
२ गीता २४८
३ योगविधिका
४ अभिधान चितामणि ११७७
५ जंगसिद्धान्त दीपिका ४२६
(स) देखिए- तत्वार्थ सूत्र ६११ से ४ तक