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करने का उपाव और जंगल में नार
ज्ञान-युक्त तप का फल पार्श्वनाथ ने इस अज्ञान तप के विरोध में बहुत बड़ी फ्रान्ति की थी,लोगों को विवेक पूर्वक तप करने का उपदेश दिया था। आज भी जनसूत्रों में आये वर्णनों से पता चलता है, गांव-गांव और जंगल उपवनों में ऐसे हजारों लाखों बाल तपस्वी भरे थे । कोई कड़कड़ाती सर्दी में नासाग्र तक जल में खड़ा रहकर रात विताता था, कोई भुजायें ऊपर उठाकर चिलचिलाती धूप में सूर्य मण्डल के सामने खड़ा आतापना लेता था । कोई वृक्ष की शाखा से पांवों को बांधकर ओंधा लटक जाता था, कोई जीते जी छाती तक भूमि में गड़कर पड़ा रहता था । कोई सिर्फ खलिहानों में धान साफ करने के बाद बचे खुचे दाने वीनकर ही पेट भरते थे तो कोई पानी पर तैरती सेवाल (काई) खाकर ही रहते थे । औपपातिक सूत्र में ४२ प्रकार के वानप्रस्थ तापसों की चर्चा है जो विविध प्रकार के क्रियाकांडों द्वारा तप करते थे, शरीर को कष्ट देते थे । बहुत से मगर मच्छ की तरह रात-दिन जल में पड़े रहते थे, तो वहुत से सांप की तरह सिर्फ वायु भक्षण कर के ही जीते थे।
.इस प्रकार सैकड़ों हजारों प्रकार से साधक अपने शरीर को कप्ट देते थे, अज्ञान तप के द्वारा जनता को प्रभावित करते थे।
वाल-तप की असारता भगवान पार्श्वनाथ के प्रयत्नों से अज्ञान तप का प्रवाह कुछ कम जरूर हा, किन्तु फिर भी पूरे भारतवर्ष में इसका बहुत प्रचार था। भगवान महावीर स्वयं कठोर तपोयोगी थे, किन्तु वे इस प्रकार के देहदण्ड को विल्कुल निरर्थक मानते थे । तप के साथ ज्ञान और विवेक होना बहुत ही
व्यवहार भाप्य १०१३३-२५ ।
वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद पि भी ऐसा ही व्रत तप करते थे। २ सेवालभविखणो-ओपपातिक सूत्र तथा बौद्धग्रन्य ललितविस्तर
पृ० २४८
३ जलवासिणो, अम्बुभ विखणो"वायुभविखणो। -नोपपातिक सूत्र
(स) रामायण (३।११।१२) में, मंडकर्णी नामक एम. तापस का वर्णन आता है, जो केवल वायु भक्षण करके जीवित रहता था।