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जैन धर्म मे तप
वन्धुओ I आप भी ऐसे यात्री को सच्चा यात्री नही कहेगे न ? यात्री होता तो उसे अपने लक्ष्य का, अपनी मंजिल का अवश्य ही पता रहता । आप गाडी मे बैठे हो, और किस स्टेशन पर उतरना है यह पता ही न हो, तो क्या वह यात्रा कभी पूरी हो सकेगी ?
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एक यात्री स्टेशन पर टिकट लेने गया । बाबू से टिकट मागी । बाबू पूछा - " कहा जाना है
?"
६
ין
"ससुराल
"कहा है ससुराल
- वावू ने पूछा ।
"जहा गाटी जाती है ।"—उस यात्री ने उत्तर दिया ।
तो उस यानी को कहा का टिकट दिया जाय
?
जिसे अपनी ससुराल का पता भी नही मालूम, गाव भी नहीं मालूम, वह ससुराल कैसे पहुंचेगा ? और कौन बाबू उसे कहा का टिकट देगा ?
"
वधुओ ! दुनिया देकर हंसिए मत । सोचिए, क्या इस स्थिति में आज
1
आप या आपके समाज का बहुत-सा वर्ग नही गुजर रहा है ? जीवन एक यात्रा है, इस यात्रा पर हजारों-लाखो-करोडो लोग चल रहे हैं, कोई दस वर्ष से, कोई बीस वर्ष से, और कोई पचास-साठ वर्ष से भी । चलते-चलते कमर टेटी हो गई, घुटने कमजोर पड गये, पिंडलियां पणिहारी गाने लग गई, पर अभी तक मंजिल का कुछ पता नही है । आपसे कोई पूछे अरे, में ही पूछ लेता है, "भाई, आपकी इस लम्बी यात्रा का लक्ष्य क्या है गाव पहुंचना है ? मजिल वा नाम क्या है, किधर है वह प्रश्न पर सकपकाकर मेरा मुँह ताकने नही लगेंगे 'महाराज 1 यह तो पता नहीं ?" अरे । भोले यात्री । पता नही तो चला वहा जा रहा है पहले मंजिल तय कर फिर चल ।" आप कहेंगे- "आप ही बता दीजिये ।" यह भी क्या खूब है ! जाना आपको, और मंजिल में बताऊँ ।
?
आपको कौन से
क्या आप इस
?
1
कोई आपने पृष्ठे---"भाई साव, नाम क्या है ?
आप बोले--"आप ही बता दीजिये ?" पैना मजेदार उत्तर है यह
၇။
1 पर नचमुच आज की स्थिति ऐसी ही है,