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भिक्षाचरी तप होती है, वही भिक्षा भिक्षु के लिए ग्राह्य होती है । वास्तव में तो भिक्षा वही है जो सहज ही गृहस्थ के घर में प्राप्त हो जाय ! भिक्षु के लिए बनाया हुमा, खरीद कर लाया हुआ भोजन आदि भिक्षा नहीं, उपहार बन जाता है। अतः भिक्षाचरी करने वाले श्रमण को इस प्रकार के निर्दोप आहार की ही ऐपणा करनी होती है जो वास्तव में भिक्षा हो, भिक्षा के नियमों के अनुकूल हो।
भिक्षा के दोष भिक्षु को जो कुछ भी मिलता है वह सब भिक्षा के द्वारा ही मिलता है, अर्थात् मांगा हुआ ही मिलता है। मांगना-याचना भिक्षु को विधि है। इसलिए शास्त्र में कहा है
सव्यं से जाइयं होइ नत्यि फिचि अजाइयं ।' भिक्षु के पास जो कुछ भी है, यह गाव याचित - अर्थात् भिक्षा से प्राप्त किया हुआ है । न सगैदा हुआ है, ने अपने घर से दीक्षा लेते समय कुछ साथ में लेकर आया है। भविष्य में भी जो कुछ आवश्यकता होगी वह भी मांगने पर-दूगरों को सामने पाय या हाथ पसारने पर ही मिलेगा ! और दूसरे के सामने हाय पसारना-मांगना सरल नहीं है। "पाणो णो सुप्पसारए अत: मांगना एक परीपह है, काट है।
यहत से लोग कहते हैं साधुओं को गया, उन्हें तो मांगा हमा मिलता है।
ज्यां में मांगा मिले माल
त्यां ने फाई पामोरे नात! किया मान जाते कि गांगना जितना कठिन माविमला -पर जाय मांग नहीं मिज देहो रे फाज !
अपने लिए मांगने से हो पर माया . शिरमाए नाममा मोवाद मांगना ही नहीं हैं, जिनमक और