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... जैन धर्म में तप पडिफुटें फुलं न पविसे, मामगं परिवज्जए,
अचियत्त कुलं न पविसे चियत्त पविसे कुलं । प्रतिक्रुष्ट-अर्थात् निन्दित, जुगुप्सित और गर्हित कुल में कभी प्रवेश नहीं करना चाहिए ।' जो कहे कि - मुनि ! मेरे घर में मत आना, उस निपिद्ध घर में भी नहीं जाना चाहिए ! जिस घर में जाने से घर मालिक को संदेह हो कि यह साधु कहीं गुप्तचर बनकर तो नहीं आया है, ऐसे कुल : में तथा जहां जाने से गृहस्थ के मन में साधु के प्रति अप्रीति उल्टा पभाव बढ़े कि कहां से आ टपके ! क्यों आ गये ! वैसे घरों में भी नहीं जाये । जहां . जाने पर प्रीति, सद्भाव और शुद्ध भोजन की प्राप्ति हो सके ऐसे ही कुलों में जाना चाहिए। - हां, तो यह विवेक तो भिक्ष को रखना ही चाहिए ! बिना सोचे-समझे किसी के घर में घुस जाना तो अनर्थकारी हो जाता है। आप कहेंगे फिर क्यों शास्त्रों में स्थान-स्थान पर यही पद दुहराये गये हैं ? इसका समाधान है--कि ऊँच-नीच-मध्यम कुल में भिक्षाटन करे। यह नहीं कि किसी बड़े सेठ के घर से तो भिक्षा ले आये, मिष्ठान्न से पात्र भर लिये, गरीब घर मेंजहां सूखी रोटी मिलने की आशा होती है उसे छोड़ दिया । भले. ही विचारा गरीब पलक पांवड़े बिछाये साधु जी के आगमन की राह देखता है । सामु. दानिक गोयरी का अर्थ यही है कि साधु रस की, स्वादिष्ट भोजन की लोलुपता से रहित होकर समभाव के साथ भिक्षाचरी करे, और थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करके गोचरी करें, न कि गधाच री ! जहां पड़े मूमल वहीं येम . कुशल-ऐसी बात न करें।
गोचरी के इस आदर्श को माधुकरी वृति में भी तोला गया है। श्रमण को मधुकर 'भंवरे' की उपमा दी गई है। दशवकालिक में कहा है -
२ प्रतिष्ट मल दो तरह के होते हैं-मृतक और मृतक के घर अलगालियः प्रतिष्ट तथा सोम मातंग आदि पावकालिक - गर्दा प्रतिरप्ट ! निकि मग सूत गादि, भावरहि अमोजा डायमायंगादी।
-- जिनदास यूनि, प० १७४