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जैन धर्म में तप में यही बहुत बड़ा अन्तर है, अन्य सब परिभाषा योग को शुभ एवं मोक्षमा साधक ही मानती है. जवकि आगम की परिभाषा के अनुसार योग-शुभअशुभ दोनों प्रकार का होता है, शुभ योग पुण्य का कारण है, अशुभ योग पाप का।' __प्रश्न हो सकता है-योग की परिभाषा में इतने बड़े अन्तर का कारण क्या है ? उत्तर है - जैन आगम योग को मात्र एक प्रवृत्ति रूप मानते हैं,प्रवृत्ति के अर्थ में ही वहां योग शब्द का व्यवहार हुआ है जबकि अन्य विद्वानों ने योग को आध्यात्मिक साधना के रूप में माना है । जैन आगमों में इसीलिए 'योग-निरोध' को संवर व मोक्ष माना है, क्योंकि शुभ-अशुभ योगों का सयंया निरोध होने पर ही आत्मा पूर्ण रूप में स्वरूप दशा में स्थिर होती है, और स्वरूप दशा में स्थिर होना ही मोक्ष है । इस दृष्टि से जैन परिमापा का यह अन्तर स्पष्ट हो जाता है कि योग-एक प्रवृत्ति है, चंचलता है, व्यापार है। इसीलिए यहां योगों की प्रवृत्ति को अशुभ से हटाकार शुभ (कुशल) व्यापार में लगाना और शुभ-अशुभ दोनों व्यापारों का निरोध करना-रो दो प्रतिमलीनता तप कहा गया है।
तीन भव योग प्रति संलीनता तप तीन प्रकार का है-- १ मन योग प्रतिसंलीनता २ यचन योग प्रतिरोलीनता ३ नाय योगप्रति मलीनता
मन आदि प्रत्येक योग के तीन-तीन भेद बताये गये है, जो इस प्रकार हैमगजोग परिसंतीया तियिहा---
पता तंजहाअकमलमण निरोहो या माससमग उदोर वा मनतामा गतीमावार
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भः पुनान, अमः पापा।
शायं