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प्रतिसंलीनता तपं
३५५ जैसे नदी की धारा सदा बहती है वैसे ही मन सदा गतिशील रहता है । हां, नदी की धारा हमेशा ही नीचे की ओर बहती है, जबकि चित्त नदी की घारा कभी नीचे और कभी ऊपर-दोनों ओर ही बहती है । इसलिए महपिपतंजलि ने चित्त रूप नदी को 'उभय-वाहिनी' बताया है--चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय, वहति पापाय च । चित्त नाम की नदी कभी ऊपर की ओर-पुण्य के लिए, शुभ कर्म के लिए वहती है तो कभी नीचे की ओर पाप की तर्फ बहती है । दोनों ओर इसका मुंह है इससिए यह द्विमुखी धारा है । आरण्यक में कहा है
मनोहि द्विविधं प्रोक्तं शुद्ध चाऽशुखमेव च ।
अशुद्ध कामसपंर्फाच्छुछ फाम विवर्जितम् ।' मन दो प्रकार का है-शुद्ध और अशुद्ध । कामनाओं से सहित मन अशुद्ध है और कामनाओं से रहित मन शुद्ध है।
पानी का प्रवाह जिस प्रकार सहजतया नीचे की ओर ही बहता है उसी प्रकार मन भी सहजतया अणुभ विचारों की ओर अधिक वहता है। बुरे संकल्प, अशुद्ध विचार अनायास ही मन में आ जाते हैं, जैसे वृक्ष पर पक्षी विना बुलाये ही आकर बैठ जाते हैं, उसी प्रकार मन में अशुभ विचार भी विना बुलाये, विना किसी प्रयत्न के अपने आप आ जाते हैं। यह तो प्रकट सत्य है कि मन कभी विचारशून्य नहीं रहता। मन को विचारों से खाली करने की बात-सहज रूप में अनुभव गम्य नहीं है । साधारण साधक के लिए वह संभव भी नहीं हैं, अतः जैन दर्शन में तथा योगदर्शन में भी सर्वप्रथम मन का परिष्कार करने की विधि पर हो बल दिया है। अशुभ विचारों से मन को हटाना, मन को कलुपता का प्रक्षालन करना और शुभ विचारों की मोर उसे मोट देना-मनोनिग्रह की प्रथम भूमिका रही है । इसे ही मन का संयम
१ मंत्रायणी नारयणा ३४-६ २ . मगजमो पाम सकुसलमणपिरोहो मुत्तालमाउदीरणं वा।
~-आचार्य जिनदास, दार्वकालिक पूणि १