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________________ जैन धर्म में त '' में ही एक प्रकार का विनय है और इसका सीधा सम्बन्ध शरीर है इसलिए इन सब प्रवृत्तियों को काय विनय के अन्तर्गत माना गया है । विनय का सातवां भेद है-लोकोपचार विनय । इसे एक प्रकारका लोक व्यवहार भी कह सकते हैं। इसके सात भेद बताये गए हैं जो इस प्रकार हैं- १. गुरु आदि के निकट रहना, २. उनकी इच्छानुसार वर्तन करना, ३. उनके किसी कार्य को पूरा करने के लिए साधन आदि जुटाना ४. गुरुजनों: जो उपकार किये है उनका स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञ रहते हुए उन उपकार का बदला चुकाने का प्रयत्न करना, ५. रोगी आदि की सेवा के लिए तैयार रहना ६. जिस समय जैसा व्यवहार और जैसा संभाषण उपयुक्त हो, वा करना अर्थात् समयोचित व्यवहार करना ७ ओर किसी के ि आचरण न करना । इस साल बालों में लोकव्यवहार की कला बताई गई है। संसार के जितने भी लोकप्रिय नेता हुए है उनके जीवन को देखने से पता चलेगा कि प्राप इन बातों पर उनका विशेष ध्यान रहा है। एक प्रकार से से प्रियता के नुसते है । हो, यह जरूर है कि लोकप्रियता के नाम पर गंगा गंगादास जगता गये जमनादास' वाली बात न हो, व्यक्ति का कुछ अपना अवि सिद्वान्त और विचार भी होता है किन्तु विद्वानवादिता के नाम पर अव्यावहारिक होना और अभिभाषण करता उचित नहीं है। नव कसे भी मधुर व प्रिय भाषा के बाद रखना और किसी के उपमुलक आकार व करना-यही बात तोकोपचार बिन में बताई गई है। कि पापा विनय और के गवारे केही बताया है। यह महार आदिदुर्भाव को का है। कनके जीवन में मी वादों में टिएस वर्ष वरपर भएक बीटामा महान कुक की नको" इतने में महूकार ने केकतान के महान को रोक
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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