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________________ व्युत्सगं तप ५१३ हमारे इतिहास के प्राचीन ग्रंथों में ऐसे सैकड़ों-हजारों उदाहरण मिलते हैं, जहां साधु संत, साधक जंगल में, श्मशान में, कहीं शून्य एकांत स्थान में कायोत्सर्ग करके खड़े होते हैं, देह भाव से निकलकर आत्मा की परम ज्योति में लीन हो जाते हैं और उस समय उन्हें भयंकर उपसर्ग होते हैं, कोई प्रहार करता है, कोई मारता है, शरीर का छेदन भेदन करता है, किन्तु साधक ऐसे स्थिर खड़ा रहता है जैसे यह शरीर का उसका है ही नहीं ! आचार्य भद्रबाहु ने साधक की उस स्थिति का चित्रण किया है-- वासो - चंदणकप्पो जो मरणे जोविए य समसप्यो। देहे य अप्पडिबद्धो फाउसगो हवइ तस्स ११५४८॥ चाहे कोई भक्ति भावपूर्वक चंदन का लेप करे या कोई द्वेप पूर्वक यसोले से छोले । चाहे जीवित रहे या मृत्यु आ जाय, किन्तु उन सभी स्थितियों में साधक देह में आसक्ति नहीं रखता है, समभाव पूर्वक स्थिर रहता है, वस्तुतः ऐसा साधफ ही कायोत्सर्ग कर सकता है। तिविहाणवसगाणं दिव्याणं माणसाण तिरियाण। सम्ममहियासणाए काउस्सागो हवा सुडो ।१५४६॥ कायोत्सर्ग की साधना करते समय देवता, मनुष्य तथा नियंच सम्बन्धी उपसर्ग भी हो सकते हैं, माघर उन उपागों को सम्यक प्रकार से सहन करें तभी उसता कायोलागं शुरु हो सकता है। इतनी निस्पृहता, पोतरागता और महिष्मता का प्रत्यक्ष गंन कालोसगे में होता है । सा हो नहीं, गृहस्प भी इस कापोलग तप को नापना करता है, वह भी विदेह भार में रमण करने को नदारी कर सकता है। इतिहान में एक उपाहरन माता राना इन्द्रावतसकता। जो इन महार:--- ।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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