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ऊनोदरी तप
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अर्थात् अल्पभापी बने । भाषा-मनुष्य की सबसे बड़ी संपत्ति है, इसके द्वारा मनुप्य अपने भावों को यथार्थ रूप में प्रकट कर सकता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह इस अद्भुत संपत्ति का मनचाहा उपयोग करें। संपत्ति को उड़ाने वाला बुद्धिमान नहीं होता किंतु संपत्ति का सदुपयोग करने वाला बुद्धि मान होता है । भाषा की संपत्ति का सदुपयोग करना-बचन को कला है । इसके लिए सबसे पहली बात यह है-निरर्थक योलने की आदत कम करें। जो मनुष्य अधिक बोलता है-वह भाषा का विवेक नहीं रख सकता। वोलते-बोलते विना विवेक के ऊलजलन भी बोल जाता है । और उसका फिर दुष्परिणाम आता है-इसलिए कहा गया है-धचन रतन मुख फोट है, वचन एक प्रकार या रत्न है, इसको मुख रूप तिजोरी से बाहर निकालने से पहले बहुत सोच-विचार करलो, किसलिए ? क्यों ? और कितने वचन रतन निकालने हैं यह सोचकर ही निकालो ! जितने यनन की जरूरत है उससे पाम वचन से ही काम कर लेना बुद्धिमानी है, और एक को जगह दो बनन का प्रयोग करना गुसता है । नीतिकारों ने कहा है---
हितं मनोहारो वचोहि वाग्मिता' हितकर मनोहर बचन बोलना वक्तृत्वकला है । जो साधन
मियं अदुटुं अणुपोइ भासए सयागमन सहई पसंसणं ।। विचारपूर्वक सुन्दर और परिमित शब्द बोलता है वह सज्जनों में प्रशंसा प्राप्त पारना है।
शास्त्रों में जहां भी बोलने का प्रसंग नाया है यहां प्राय: साधर के लिए यह निर्देण दिया गया है-यह कम बोले, परिमित पद घोले
अप्पं भासिज्ज सृष्यए' नुभवी मारक कम से पान बोले
निस्वर्ग या पिन योहाना
६ मा
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