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जैन धर्म में तप ___किंतु, कभी कभी तप करने वाला साधक कर्मनिर्जरा का उद्देश्य भूलंकर भौतिक लाभ के लिए तप करने लग जाता है । उसके मन में, तप के भौतिक फल की कामना भी जागृत हो जाती है । संसार की भौतिक ऋद्धियों को देखकर, काम भोगों के सुखों की कल्पना कर वह सोचने लगता है-"मेरे तप के प्रभाव से मुझे भी ऐसा लाभ मिलना चाहिए। यदि मेरी तपस्या का कुछ फल हो, तो मैं भी अमुक प्रकार का संपत्तिशाली, यशस्वी व सुखी बनूं।" तपस्या के साथ इस प्रकार का तुच्छ संकल्प पैदा होना 'तप का शल्य' माना गया है । कांटा जिस प्रकार शरीर में चुभकर बैचेनी पैदा कर देता है, वैसे ही इस प्रकार की भोगाभिलापा तपस्या के आत्मानंद में, एक .. प्रकार की वैचेनी, पीड़ा व खटक पैदा कर देती है। साथ ही तपस्या के अचिंत्य व असीम फल को भी तुच्छ भोगों के लिए वांध देती है।
कल्पना करिए-द्रो मनुष्य अंगूरों की खेती कर रहे हैं, खेती में खूब खाद और पानी दे रहे हैं, अच्छी बढ़िया जाति के पौधे लगाए हैं, समय-समय. पर उसकी देखभाल भी कर रहे हैं । अब अंगूर की खेती पकने में तो समय लगता है, खेती में चट रोटी पट दाल नहीं हो सकती । फल आने में महीनों .." व वर्षों लग जाते हैं। तव उनमें से एक आदमी सोचता है-मैं इतनी मेहनत कर रहा हूँ अभी तक इसका कुछ फल नहीं मिला, दूसरे लोग देखो, विना मेहनत किये ही मजे से खाते-पीते हैं, घूमते फिरते हैं। कोई मुझे भी यदि मेरी मेहनत के बदले सिर्फ पांच सौ रुपये दे दे तो मैं यह खेती वेच डालू और मौज करूं।" दूसरा साथी उसे कहता है--"भोले भाई ! . पांच सौ रुपये के लिए यह इतनी मेहनत की खेती मत बेचो । पता नहीं पांच सौ की जगह पांच हजार और पचीस हजार भी मिल जाये । यह तो अंगूर की खेती है, मेहनत करते जागो ! फल तो मिलेगा ही, फल के लिए वीच में अधीर बन कर मेहनत के मोती को कंफर के भाव मत वेचो !"
किन्तु पहला साथी दूसरों को आजादी से घूमते-फिरते मौज-मजा करते देखकर अधीर हो जाता है। किसान के हाथ में तो सेती पकने पर पैसा . भाता है, पहले तो बस, जो आये खेती में लगाते जागो ! पहले का धीरज