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जैन धर्म में तप । नासक्ति रहती है, तप हो ही नहीं सकता। शरीर की सार-संभान पारने ... चाले प्राणों के मोह में पड़ने वाले --एक समय की भूख भी नहीं सह सकते। उन्हें लगता है-भूखा रहने से शरीर कमजोर हो जायेगा, शक्ति घट जायेगी। इसलिए खाने से ही उनका मन चिपटा रहता है। वास्तय में यह नजान है । खाने से जितनी शक्ति नहीं आनी उतनी पचाने से मिलती है। यदि बढ़िया से बढ़िया स्वादिष्ट व गरिष्ठ भोजन गाया, किन्तु हजम नहीं हुआ तो शक्ति बढ़ेगी या क्षीण होगी ? अपचन हुआ । बजीणं हुआ तो रोग की शुरूआत समझ लो । रोग होने से शरीर दुर्बल होगा, आगुक्षीण होगी । खाये हुए अन्न को पचाने के लिए, उसका रस बनने के लिए पेट को विश्राम की जरूरत होती है, और वह विधाम ही अनशन व ऊनोदरी तप है । तो इसलिए तप से आयु व शरीर क्षीण नहीं होते, किन्तु तप से मनुप्प दीर्घायु होता है । नीरोग रहता है।
हां तो मैं यह नहा या शरीर का मोह रखने वाला उपवास आदि तप नहीं कर सकता । यह तप वही कर सकता है, जिसे गरीर की ममता न हो, प्राणों का मोह न हो, जीवन के प्रति कोई आसक्ति न हो । और जीवन के प्रति अनासक्त भाव जगना ही आहार त्याग रूप तप का फल है ।
वहाँ एक बात ध्यान में रखने की है, शास्त्र में उपवास का नाम जहा भी बताया है, वहां आध्यात्मिक लाभ ही बताया है। उपवान से होने वाले शारीरिक लाभ तो अपने माप होते ही हैं, उनके लिए कोई उपवास नहीं किया जाता, उपयास तो आत्मा को निर्मल बनाने के लिए, मन य शरीरमा निग्रह करने लिए ही किया जाता है। ऐसे उपयाग का महार पर होता है।
भगवती गुम में एक प्रसंग पर पूछा गया है-"माधु पर उसयाम करता है तो उससे मिलने गमों का क्षय कर दालना है ?"
उजर में पाया गया है. मा एक पयाम में जितने का
आने काम र विक जीवनमाणु वर्ग में भी नहीं पा ममता । में सामने की कामना, रवि जीय नागों में
न में गाने को बनाया है। उपायास मदी