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तप का उद्देश्य और लाभ
तपस्या से लेश्याओं को संवृत करने वाले साधक का दर्शन-सम्यक्त्व परिशुद्ध होता है, निर्मल होता है। तप से इसी प्रकार के महान फल की प्राप्ति वैदिक ग्रन्थों में भी मानी गयी है । कहा है
तपसा प्राप्यते सत्वं सत्वात् संप्राप्यते मनः ।
मनसा प्राप्यते त्वात्मा ह्यात्मापत्त्या निवर्तते।' तप द्वारा सत्व (मन को विजय करने की ज्ञानशक्ति) प्राप्त होती है सत्व से मन वश में आता है, मन वश में आ जाने से दुर्लभ आत्मतत्व की प्राप्ति होती है और आत्मा की प्राप्ति हो जाने पर संसार से छुटकारा मिल जाता है, आत्मा कर्म बन्धनों से सर्वथा मुक्त हो जाती है। इस प्रकार जैनेतर दर्शनों ने भी तप का अन्तिम लाभ मोक्ष माना है। महर्षि वशिष्ट से पूछा गया कि संसार में सबसे दुर्लभ-दुष्प्राप्य क्या है ? तो उन्होंने कहा-मोक्ष ! सर्व दुःखों से विमुक्ति ! फिर पूछा गया-वह दुष्प्राप्य मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकता है ? तो उत्तर दिया
तपसैव महोग्रेण यद् दुरापं तदाप्यते ।। संसार में जो सर्वाधिक दुष्प्राप्य वस्तु है, वह तपस्या के द्वारा प्राप्त की जा सकती है।
उपर्युक्त विवेचन का सार यही है कि तप का जो उद्देश्य है, वही उसका फल है, लाभ है । तप का उद्देश्य है-आत्म विशुद्धि और मोक्ष प्राप्ति । तप से इसी फल की प्राप्ति होती है। इसलिए कहा जा सकता है मुक्ति लाभ ही तप का मुख्य फल है।
१ मैत्रायणी आरण्यक ११४ २ योगवाशिष्ठ ३।६८।१४