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जैन धर्म में तर
भारमा से भिन्न चिन्मयशक्ति मानना ज्ञान । कहा है
बेहोऽहमिति या बुद्धिः अविद्या सा प्रकोतिता।
नाहं वहश्चिदात्मेति बुद्धि विद्येति भण्यते ।। 'मैं (आत्मा) देह हूं'-इस बुद्धि का नाम अविधा, अमान है, और मैं देह से भिन्न चेतन आत्मा हूं'-इन बुद्धि का नाम विद्या या भाग है। यही यात नाचायं भद्रवाह ने कही है
अन्नं इमं शरीरं जन्लो जीव त्ति एव फययद्धी ।
दुक्सपरिफिलेसफरं दि ममत्त सरोराओ। "यह शरीर अन्य है, भात्मा अन्य है"-साधक इस प्रकार की तत्व बुद्धि के द्वारा दुख एवं क्लेश देने वाली शरीर की ममता का त्याग करें। ___ आत्मवादी साधक यह मोगता है-"जो दुस है, कप्ट हैं, ये सय पारीर को है, आत्मा को नहीं । कष्ट से शरीर को ही पीला हो सकती है, यध आदि से गरीर का ही नाश हो सकता है. आत्मा का नहीं-त्यि जीवरस नासुत्ति'मात्मा का ज्ञान दर्शनमय निमयरूप है, जो की कोई शापित नष्ट नहीं कर सकती, उसका पाभी नाश नहीं हो सकता, नहीं मेरा स्वरूप है । दारीर तो भौतिक है, नाममान है,
- पच्छा पुरा या पायव्यं फेणुमुम्बप सन्निभं--- पहले गा पीछे-म जन युदबुदे से गमान नाममान भरीको रा त्यागना ही है। फिर कष्ट आदि से भयभीत गयों होना ? गोष्ट है. यह शरीर गो, मात्मा को नहीं---
योगिरे सरवसो फाय नम देहे परीसहा जो पीपा कष्ट, वे मुझ में नहीं, देश में मार मेना , इस प्रकार दिनार कर रही ममता को, राग भाव को को देना चाहिए।
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