________________
५५
जैनधर्म के तप का महत्व
वाद भी अर्थात् तीर्थंकर के भव में भी तपःसाधना करनी पड़ती है । अनन्तवली तीर्थंकरों ने जीवन में जो भी शुभकार्य किये हैं, जैसे दीक्षा, केवल ज्ञान, धर्मदेशना आदि उनके प्रारंभ में भी सर्वप्रथम तपश्चरण करते हैं । प्रत्येक शुभकार्य की आदि में तप करते हैं। तपको उन्होंने परम मंगल माना है, महामंगल माना है ।१।
कल्पसूत्र में भगवान ऋषभदेव के जीवन का वर्णन करते हुए बताया है कि जब वे संसार त्याग कर दीक्षा लेते हैं तो पहले दो दिन का तप करते हैं-छद्रेणं भत्तेणं अपाणएणं केवलज्ञान के समय भी वे तपस्या में लीन रहते हैं । और सिर्फ भगवान ऋषभदेव ही क्या, सभी तीर्थंकर दीक्षा के, केवलज्ञान के और निर्वाण के समय तपःसाधना करते पाये जाते हैं। भगवान महावीर भी जिस दिन घर से अभिनिष्क्रमण कर दीक्षा के लिए प्रस्थान करते हैं उस दिन उनको वेले का तप होता है । केवलज्ञान के पूर्व भी वे वेले का तप कर ध्यान में लीन रहते हैं । इसका अर्थ है हर एक सिद्धि के मूल में तप ही मुख्य रहता है, तप मंगलमय है, वह सब विघ्नों का नाश करने वाला है, सब अरिष्ट उपद्रव को शांत करने वाला है। आपको ज्ञात होगा, प्राचीन समय में चातुर्मास प्रवेश के दिन, शास्त्र वाचन की आदि में मुनिजन तप का अनुष्ठान करते थे। इसका अभिप्राय यही था कि तपानुष्ठान के दिव्य प्रभाव से सव अनिष्ट दूर हो जाते, कार्य सुखपूर्वक संपन्न होता और मंगलमय वातावरण रहता।
- जैन परम्परा में तप को महानता का प्रशस्त मार्ग माना गया है, सव मंगलों में प्रमुख मंगल के रूप में ध्याया गया है और सर्वसद्धियों का मूल मंत्र मानकर इसकी आराधना की गई है।
१. धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा सजमो तवो- दशवकालिक १११.