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जैन धर्म में तप
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उसके सुन्दर परिणाम के कारण उसे कभी हेय नहीं बताया गया । वास्तव में हर एक क्रिया उसके गुण-दोष रूप फलं पर निर्भर करती है । सुन्दर फल लाने वाला दोष भी कभी-कभी गुण वन जाता है
अगुणो विय होति गुणो जो सुन्दर णिच्छओ होति । १ वह दोष भी गुण का कारण बनने से गुण ही मानना चाहिए जिसके परिणाम में सुन्दर फल प्राप्त होता है ।
दोष और गुण वस्तु में, नहीं कभी एकान्त ! 'मिश्री' फड़वा नीम भी करता पित्त प्रशान्त ! गुण-दोष के परिणाम का
विचार करके ही वस्तु को, किसी क्रिया को
अच्छी या बुरी कही जाती है, जो नीम कड़वा होता है, जिसे चखते हो थू-थू करते हैं, वह भी पित्त ज्वर को शांत करने में, रक्तशुद्धि करने में तथा चर्म रोगों पर औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है, ओर बड़ा लाभकारी माना गया है- सर्व दोषहरो निम्व: कहा गया है ।
तो इसी प्रकार गुण-दोप के विचार पर ही लब्धि प्रयोग का विधान और निषेध शास्त्रों में किया गया है। मूल बात है, लब्धि व शक्ति का प्रयोग अपने अहंकार आदि के पोपण के लिए निषिद्ध है, किंतु, जीवदया, संघ रक्षा व धर्म प्रभावना आदि के प्रसंगों पर वह अनुमत भी है ।
१. निशीय भाष्य ५८७७
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