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ध्यान तप
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जाता है। इसलिए यह बताया गया है कि शुभ व पवित्र आलम्बन पर मन जब स्थिर होता है, तो वह ध्यान या शुभध्यान ध्याने लगता है। वास्तव में ध्यान का अर्थ यही है कि अशुभ विचार प्रवाह को रोक कर शुभ की ओर मोड़ देना और शुभ में ही बढ़ते जाना। मन की अतमुखता, अन्तरलीनता यह शुभ ध्यान है । मन अधिक समय तक न अशुभ में स्थिर रहता है और न शुभ में। उसमें प्रवाह की भांति चंचलता होती है, वह चंचलता कुछ समय के लिए रुक सकती है। जैन आचार्यों ने बताया है - मुहुर्तान्तर्मनः स्थर्य ध्यानं छद्मस्य योगिनाम् --छद्मस्थ साधक का मन अधिक से अधिक अन्तमुर्हत भर (४७ मिनट) तक एक विषय में एक आलम्बन पर स्थिर रह सकता है। इससे अधिक समय स्थिर रहने की शक्ति उसमें नहीं होती है, और यदि इससे अधिक समय भी मन एक आलम्बन पर स्थिर रह जाय तो समझ लो फिर वीतराग दशा प्राप्त हो गई, फिर मन की चंचलता समाप्त है, एक रूप से मन ही वहां समाप्त हो जाता है, अर्थात् मन को पूर्ण रूप से जीत लिया जाता हैं, किन्तु छद्मस्थ साधक जब तक मन पर पूर्ण विजय नहीं कर पाता वह एक मुहुर्त से कम ही अपने मन को एक विषय पर स्थिर रख सकता है, उसके बाद विपय व आलम्बन बदल जाते हैं, हां शुभ ध्यान का प्रवाह तो जरूर चलता रहता है, किन्तु मन की निष्पंदता टूट जाती है ।
__ आतध्यान का स्वरूप व लक्षण चार ध्यानों में दो ध्यान अशुभ माने गये हैं-आर्तध्यान एवं रोद्रध्यान ! आर्त का अर्थ है-दुःख, पीड़ा, चिन्ता शोक आदि से सम्बन्धित भावना । जब भावना में दीनता, मन में उदासीनता, निराशा एवं रोग आदि से व्याकुलता, अप्रिय वस्तु के वियोग से क्षोभ तथा प्रिय वस्तु के वियोग से शोक आदि के संकल्प मन में उठते हैं तब मन की स्थिति बड़ी दयनीय एवं अशुभ हो जाती है । इस प्रकार के विनार जब मन में गहरे जम जाते हैं और मन उनमें सो जाता है, चिन्ता-शोक के समुद्र में डूब जाता है तब वह आर्तध्यान की कोटि में पहुंच जाता है। ये विचार कई कारणों से जन्म लेते हैं उन
१ योग शास्त्र ४।११५