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प्रतिसंलीनता तप
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हो जाता है ? शीतल जल अग्नि का स्पर्श पाने पर क्या गर्म नहीं हो जाता • है ? फिर मनुष्य ही ऐसा कौन सा अजीव पदार्थ है, जिस पर संसर्ग का,
वातावरण का, असर न पड़े ! मन भी तो आखिर चंचल स्वभाव वाला है हो सकता है वातावरण को पाकर वह चंचल हो उठे ! वस्य कीचड़ में गंदा होने के बाद सफाई करने से तो यही अच्छा है कि पहले ही कीचड़ से बचा जाय ? प्रक्षालनाद् हि पंफस्य श्रेयो दूराद विवर्जनम् ।
मन भटकने के बाद उसे स्थिर करने का प्रयत्न करना पड़े, इससे तो यहीं अच्छा है कि मन को पहले ही उस मलिन व विकारपूर्ण वातावरण से दूर रखा जाये। इसीलिए मानव मन के रहस्यवेत्ता पुरुषो ने साधक को विविक्त शयनारान का उपदेश किया है । कहा है
विवित्त सेज्जासणजंतियाणं,
___ ओमासणाणं दमि दिआणं । न राग सत्त धरिसे। चित्तं,
पराइओ वाहिरियोसहेहि । जैसे अच्छी व उपयुक्त औषधि के द्वारा यदि रोग की जड़ ही काट दी . जाय तो वह रोग पुनः शरीर पर आक्रमण नहीं कर सकता इसी प्रकार मल्ल
आहार करने वाले, इन्द्रियों पर संयम रखने वाले और विविक्त शयनासन का सेवन-अर्थात् शुद्ध वसति में रहने वाले साधक को राग रूप आत्रांत नहीं गार साता। __ यदि कोई महंगार पारे नि में बहुत बड़ा तपस्वी हैं, ज्ञानी हूं, मैं नहीं भी न तो जल में कमलती तरह निलेप कह सकता है। स्थियों के रंगरारा के बीच में भी में अपने प्रसनयं को असं अलिस र समतात) हो सकता है कि उसका अहंकार नत्य हो, किन्तु यदि मन पचन हो उठा तो
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१ मा माग मानललं नागरम निलं नामेण संपरा पागेर गोषमा मनोमानविन ।
-~-भागा नयाद आयग्यकारि० ११२७-२८ २ सारा मन ३२३२
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