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. जैन धर्म में आप तो क्या उसका यह चितन उचित है ? नहीं ! वास्तव में जितना माय यह ध्यान एवं नक्ति को देता है उतना ही महत्व सेवा का भी है। दूसरों की सेवा करना-दूसरों का काम नहीं, अपना ही काम है। सेना कराने . बाले को तो सिर्फ दाणिक लाभ है, फि तत्काल उसे साता पहुँन जाती है, . किन्तु वास्तविक लाभ तो सेवा करनेवाले को ही मिलता है, हमों को महान निर्जरा तो सेवा करने वाले को ही होती है। सोचिएसेमा से जित तीर्थकर पद की प्राप्ति वतलाई है क्या वह सेवा करानेवाले को होती है या सेवा करनेवाले को ? तीयंकर पद, मुक्ति और अनन्त ऐकाय सेवा करने वाले को मिलता है तो सेवा करना दूसरों का काम करो हुमा ? यह तो अपना ही काम है, जिस काम से स्वयं को लाभ मिलता है यह काम स्वयं का ही होगा । इसलिए सत्य तो यह है कि जो दुसरों की सेवा करता है, यह वास्तव में अपनी ही सेवा करता है । अपना ही लान करता है।
एक प्राचीन आचार्य ने बताया है कि एक बार गणधर गौतम ने गगन महावीर से पुछा--"भगवन् ! एक साधक आपकी सेवा करता है, त-दिना द्वाप जोड़ें आपके चरणों में पड़ा रहता है, और एरनाक रोगी, धान, तुज आदि साधुओं को सेवा करता है, तो इन दोनों में श्रेष्ठ कोन ! भाग . किसे धन्यवाद देंगे?
उत्तर में भगवान महावीर ने महा-जे पिताण पडिपरद से प्राने ! गोजाग ! जो रोगों की सेवा करता है, वही वास्तव में पवाद ना ___ गौतमकान का हिना ना ! ए और अमानी fm कोनहानिमहान जो काम पुरा मगान की सेना, ना ! और गरी और मानना की परिनमा ! दोनों में महान अन्तर .
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