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विनय तप
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होकर हाथ जोड़कर पुच्छिज्जा पंजलीउडो'-अंजलि जोड़कर उस आसन अर्थात् बंदना की मुद्रा बनाकर पूछे -- “गुरुदेव ! क्या आज्ञा है ? किस लिए मुझे याद करने की कृपा की ?" बैठते समय उनके आसन से बहुत दूर नी न बैठे, और बिल्कुल सटकर भी न बैठे किन्तु उचित रीति से बैठे, पर आदि फलाकर न बैठे, पापालथी लगाकर, बड़प्पन का आसन लगाकर न बैठे, जनके आगे-आगे न चले, अड़कर भी न चले, वे बोले तो बोच में न बोलेइस प्रकार प्रत्येक व्यवहार में नमता और सद्व्यवहार तो जलया मिले, शिष्टता, राम्गता और सुशीलता का परिचय मिलता हो ऐसा व्यवहार गरे, यह विनय का तीसरा रूप है । इसी रूप में गुरुजनों की अशातना-अधमानना, हीलना न करना, उनका स्वागत, सत्कार और बहुमान आदर आदि करना आता है। बड़ों का विनय करने की शिक्षा देते हुए कहा गया है-रायगिएनु विषयं प ... अपने से बड़े पुरषों के प्रति विनय रखना चाहिए। समयाग एवं दशा रुप में जो ३३ अशातनाएं बताई गई, वे भी एक
मार ने सयवहार को हो निधियां है। उन गयो अवलोकन हो सप्टमा सोनाता, बहादर मारदार मिय
तर चिना के बाप को याद में माना बिन होताना परिमापा हमारे साम -१ गजनों कान र अनुशासन,
निय का फला
हा विकार दिई
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