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लब्धि-प्रयोग : निषेध और अनुमति
__ है ?
बाहुने निहो
जज विह
अनुमति कब ? एक प्रश्न यहां और आता है कि क्या लन्धि फोड़ना सर्वथा ही निषिद्ध है ? अथवा कभी किसी परिस्थिति विशेष में अनुमत भी है ? इसका उत्तर आचार्य भद्रवाहु ने दिया है
एगतेण निसेहो जोगेसु न देसिमो वाऽवि ।
दलिअं पप्प निसेहो, होज्ज विही वा जहा रोगे। जिन शासन में किसी भी क्रिया का, किसी भी आचरण का न तो एकांत रूप से निषेध ही है और न एकांत रूप से विधान ही है। जैसे रोग होने पर चिकित्सक रोगी की प्रकृति, वातावरण व देशकाल को देखकर उसकी चिकित्सा करता है, वैसे ही साधक परिस्थिति विशेष को देखकर कभी अनुमत कार्य का भी निषेध कर देता है, और कभी निपिद्ध कार्य भी अनुमत मान लिया जाता है। ___ किसी भी कार्य में मुख्यता कार्य की नहीं, भावना को होती है, परिस्थिति की होती है। यदि भावना में कुतूहल नहीं है, स्वयं के प्रभाव व यश-प्रतिष्ठा की कामना नहीं है, और उसके स्थान पर किसी जीव के. प्रतिवोध की आशा हो, किसी का कल्याण हो सकता हो, किसी की रक्षा होती हो, अथवा संघ, गण आदि पर कोई संकट आया हो और वह संकट टल कर संघ की रक्षा होती हो तो ऐसी परिस्थिति में किया गया लब्धिविस्फोट, लब्धि का प्रयोग वास्तव में कल्पप्रतिसेवना है, उसके सेवन से साधक विराधक नहीं होता। यद्यपि परम्परा में उसके लिए भी प्रायश्चित लेने का विधान किया गया है । प्राचीन आचार्यों ने कहा है -
रागद्दोसाणुगता तु दप्पिया फप्पिया तु तदभावा ।
आराघतो तु फप्पे, विराधतो होति दप्पेणं ।' राग और द्वेष पूर्वक जो आचरण (प्रतिसेवना-निपिद्ध आचरण) किया जाता है, वह दपिका है, सदोष है, उसके सेवन से संयम की विराधना होती
स्थितिकी कामना नहा
कल्याण हो सकता और वह संकट टल
साधक विधान किया गया
पिया ना होति आचरण)
१ वृहत्कल्प भाप्य ४६४३