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जैन धर्म में तप कपट-अगले जन्म में तो पशुत्व देता ही है, किन्तु इस जन्म में भी उसे विवेक होन, क्रूर एवं वक्राचारी बना देता है। इसलिए विवेकवान मनुप्प को माया का सर्वथा त्याग करना चाहिए। यहां तक कि धर्म और पुष करने के लिए भी कपट सेवन नहीं करना चाहिए। ज्ञातासूत्र में मल्लिप्रभु का उदाहरण देकर बताया गया है--धम्म विसए वि सुहुमा माया होइअणत्याय :-धर्म के विषय में की हुई थोड़ी सी माया भी महान अनर्थ करने वाली होती है।
माया विजय ऐसी दुर्जय एवं अनर्थकारी माया को जीतने का एक ही साधन हैसरलता ! जब तक हृदय सरल नहीं होगा,गपट को जीता नहीं जा सकता। सरल हृदय पाप नहीं करता, यदि करता है तो तुरन्त उसे स्वीकार गार उसका प्रायश्चित्त कर लेता है। सरलता छाना नहीं जानती। वह बाहरभीतर एक जैसा व्यवहार करती है, इसलिए जहां सरलता होती है, वहां माया ठहर ही नहीं सकती। जहां सरलता होगी, वही गाय होगा, जहां रात्य होगा वहीं प्रमाण होगा, आनन्द होगा और मोक्ष होगा ! इसलिए एक शब्द में कहा जा सकता है मोक्ष का मूल-सरलता है, धर्म का आधार मरलना है--सोही उपजभूयस्स धम्मो सुतस्स चिट्ठई सरन गो आत्मा शुद्ध होती है, और शुद्ध हृदय में ही शमं टिक सकता है। इसीलिए मास्ट में कहा है-माया मज्जय भायेग... माया लो, मापट को सरलता से जीतो।
मागा मिलीगता में भी दो गाते ली गईमामा के उदय का निरोज मारना, मा माया नहीं करना और मामा माम मन में भामा हो तो उसे गायन में परिणा न करना, किन्तु विनय शाम बिगार गानीमाया -विमला गो फलोन या मेना। दो दिन में और हो यार में पाने गाद जाना
उनी