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प्रतिसंलीनता तप
प्रकार माया रूप विप वृक्ष को फलवान वनने से पहले, अर्थात् माया आचरण में आने से पहले ही उसे रोक दें । यह माया प्रतिसंलीनता तप है !
लोभ सर्व नाशक है
जैन धर्मके प्राचीन ग्रंथ उपदेश माला में कहा गया हैलोभ मूलानि पापानि रसमूलानि व्याधयः स्नेह मूलानि शोकानि त्रीणि त्यक्वा सुखी भवेत् ॥
सव पापों की जड़-लोभ है ।
सब रोगों की जड़-स्वाद है ।
सव शोकों की जड़ - स्नेह है ।
इन तीनों को त्याग करने वाला सुखी होता है ।
इसीलिए संसार में 'लोभ पाप का बाप' कहा जाता है। पुराने संत कहा
करते हैं
अठारे पापों का परम पितु लोभी लचक है, गई शुद्धी बुद्धि अगणित दुःखों में गचक है ।
करे हत्या चोरी वनकर अघोरी फिरत है, महा मिथ्या भाषी विषय-अभिलापी गरत में !
अठारह पापों का वाप लोभ है - लोभी की शुद्धि-बुद्धि भ्रप्ट हो जाती है, लोभ के वश हुआ मनुष्य हत्या, चोरी जैसे घृणित और क्रूर कर्म करने को तत्पर हो जाता है, झूठ बोलना उसके लिए साधारण बात है । वास्तव में मनुष्य कितना ही चतुर हो, वक्ता हो, राजनीतिज्ञ हो, किन्तु यदि लोभ को मात्रा अधिक होती है तो वह लोगों की दृष्टि में हीन हो जाता है, उसके सब गुण ढंक जाते | जैसे लहसुन में समस्त गुण हैं, वह रसायन है, किन्तु एक उग्रगंध के कारण उसके समस्त गुण दब जाते हैं और लोग उसे हे मानते हैं । बहुत से धर्मो में आज भी लहसुन खाना मना है । तो कहने का अर्थ है कि - निखिल रसायनमहितो दोष णकेन निन्दितो भवति - नमस्त रसायन का मूल लहसुन जैसे उग्र गंध के कारण निन्दित होता है, बने हो समस्त गुण विभूषित पुरुष भी एक लोभ के कारण लोगों को दृष्टि में होन