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जैन धर्म में तप
जिनकी चर्चा भगवती, स्थामांग आदि सूत्रों में की गई है। यहां व्युत्सगं के उन समस्त भेदों पर विचार करना है ।
विउस्सग्गे दुविहे पण्णत्ते तं जहा
दव्वविउस्सग्गे य भावविउस्सग्गे य ।
व्युत्सगं तप दो प्रकार का है, द्रव्य व्युत्सगं और भाव व्युत्सगं । द्रव्य व्युत्सर्ग के चार प्रकार हैं
१. गण व्युत्सर्ग,
३. उपधि व्युत्सर्ग, ४. भक्तपान व्युत्सगं ।
१. गणव्युत्सगं - 'गण' नाम समूह का है। भारतीय परम्परा में गण शब्द बहुत ही विश्रुत है । प्राचीन समय में 'गण' का बहुत महत्व था । मनुष्यों के विविध प्रकार के समूह, दल या कुटुम्ब होते थे जो गण कहलाते थे। यहां गण से – एक या अनेक गुरुत्रों के शिष्यों का समूह - पह अर्थ अभिप्रेत है । गण में अनेक प्रकार के साधु रहते हैं जो अपनी-अपनी रुचि व सामर्थ्य के अनुसार साधना वश्रुत अव्ययन करते रहते हैं । साधना करने के लिए 'गण' का आलंबन - सहारा आवश्यक होता है । जैसे शरीर, गृहस्थ आदि साधना में उपकारी होते हैं, वैसे ही 'गण' भी साधना में सहयोगी व उपकारी होता है । गण के आश्रय से साधु अपनी चर्या निर्दोष एवं समाधिपूर्वक चला सकता है। भगवान महावीर के शासन में तथा अन्य तीर्थकरों के शासन में गणव्यवस्था थी, एक-एक गण में सैकड़ों हजारों साधु रहते थे, सबकी समाचारों तथा प्रषणा एक जैसी होती थी । उस गण के नायक 'गणधर कहलाते थे ।
यहां प्रश्न होता है जब 'गण' साधना में अति आवश्यक है तो फिर उसका व्युत्सगं-त्याग क्यों किया जाय ? उत्तर है- गण से भी अधिक उपकारी मनुष्य का अपना 'शरीर' है, किन्तु साधना को अधिक तेजस्वी व प्रतर बनाने के लिए बरी काही त्याग दिया जाता है तो 'ग' की बात तो बहुत ही साधारण हो गई। अतः तक की यह अनुभव हो
६ भगवती २५७
२. शरीर व्युत्सर्गं ( कायोत्सर्ग)