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व्युत्सर्ग तप
निःसंग-निर्भयत्व जीविताशा व्युवासाद्यर्थो व्युत्तर्ग:१ निःसंगता-अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग, बस इसी आधार पर टिका है-व्युत्सर्ग ! धर्म के लिए, आत्म साधना के लिए, अपने आपको उत्सर्ग करने की विधि ही व्युत्सर्ग है । यही व्युत्सर्ग की संक्षिप्त परिभाषा जैन धर्म में की गई है । आचार्य भद्रबाहु ने कहा है
अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवृत्ति फय वुद्धी। व्युत्सर्ग तप की साधना करने वाले में यह दृढ़ बुद्धि होती है कि- गह शरीर अन्य है, और मेरा आत्मा अन्य है । शरीर को त्यागना है,नाशमान है, आत्मा को अपनाना है, वह शाश्वत है, चिरकाल का साथी है। बस इसी धारणा पर चलता हुआ साधक शरीर जो कि 'पर' है-उसकी ममता से दूर हटता है, और आत्मा जो कि 'स्व' है उसके निकट आता है । आत्मा के लिए सब कुछ त्याग देने को तत्पर हो जाता है ।
व्युत्सर्ग फा स्वरूप गुत्सर्ग को छठा आभ्यन्तर तप माना है और इसका वर्णन अनेक सूत्रों में मिलता है । उत्तराध्ययन में बहुत संक्षेप में ही इस विण्य में बताया है, और सिर्फ कागोत्सर्ग को ही वहां न्युनगं का पर्यायवाची बताया
सपणासणठाणे वा जेउ मिपा न वावरे ।
फायत्स विउस्तम्गो हो सो परिफित्तिओ।' जो निक्ष-सोना-बैठना-उठना आदि समस्त कारिक क्रियाओं का त्याग कर शरीर को स्थिर पारफे उसकी ममता का, उसकी सार संभाल का त्याग कर देता है-यह कायोत्नगं छठा तप है।
महा मुलगं का स्वरूर बहुत ही संक्षेप में बताया है । कापोल भी .. गुमाग है, किन्तु इसके साथ अन्य भी कई प्रकार के व्यसन मंदन .
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३. सत्यारानयासिर २६६१० २ जाति १५५२