________________
૫ર્
जैन धर्म में प
व्युत्पत्ति तो नहीं बताई गई है, किन्तु विनय का फल, विनय का स्वरूप और विनय की विधि व नियम जरूर बताये गये हैं । उन सब पर एक विहंगम दृष्टि डालने से पता चलता है यहां 'विनय' शब्द अधिकतर तीन अर्थो में प्रयुक्त हुआ है
१ विनय -- अनुशासन
२ विनय - आत्मसंयम --- शील (सदाचार)
३ विनय-नम्रता एवं सद्व्यवहार
अनुशासन
उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्ययन में जो विनय का स्वरूप बताया गया है वह प्राय: अनुशासनात्मक है । गुरुजनों को आज्ञाव इच्छा का ध्यान रखना, और तदनुसार वर्तन करना, यह एक प्रकार का अनुशासन है । गुरुजन शिक्षा के हित के लिए कभी मधुर वचन व कभी कठोर वचन से उसे हित शिक्षा देते रहते हैं तब शिष्य को सोचना चाहिए
जं मे बुद्धानुसासति सोएण फरसेण वा ।
मम लाभो ति पेहाए पयओ तं पडिसुणे ।
गुरुजनों का मधुर व कठोर अनुशासन मेरे लाभ के लिए ही है इसलिए मुझे उस पर खूब ध्यान रखना चाहिए, सावधानी के साथ उसे सुनना चाहिए ।
आधाराधना- एक प्रकार का अनुशासन है, इसलिए उत्तराध्ययने में गुरु आशा को अनुशासन कहकर बताया है---फर पिअनुसार अनुशासन चाहूँ कठोर ही क्यों न हो, किन्तु शिष्य गुरुजनों के द्वारा अनुज्ञानित किया जाने पर उनके द्वारा आत्मति के कार्य में आदेश देने पर अनुसासन कुप्पेरजा अनुशासित होने पर क्रोध नहीं करें से ए बारी गावकर श्रद्धा पूर्व
में नये ।
उतरायन २७
१२६
६
21