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...... . जैन धर्म में तर भ्रमर की कहानी भी संसार जानता है। जो फूलों की मधुर सौरभ के पीछे .. पागल होकर अन्य कुछ भी विचार नहीं करता, फूलों की कलियों में जाकर छुप जाता है, और संध्या समय कली मुर्भाकर वन्द हो जाती है, भोला भंवरा भीतर ही कैद हो जाता है, कोई उस फूल को तोड़ डालता है, भौरा कुचला जाता है, वींधा जाता है मर जाता है । स्पर्श विषयासक्त हाथी का भी यही हाल होता है - वह हथिनी के स्पर्श हेतु उसके पीछे-पीछे दौड़ता है, बीच में .. कहीं खाड़ में (जो उसे पकड़ने के लिए ही बनाई जाती है) गिर पड़ता है, भूख प्यास से व्याकुल हुआ वह निर्बल-क्षीण हो जाता है और मस्त हम्ती सांकलों से वांध लिया जाता है । कवि ने कहा है
कुरंग मातंग पतंग मुंग-मीना हता पंचभिरेव पंच ।
एक प्रमादो स कथं न हन्याद् यः सेवते पंचभिरेव पंच। मृग, हाथी, पतंगा, भ्रमर और मछली ये बिचारे सभी-अपनी-एक-एक इन्द्रिय के कारण काष्ट पाते हैं । एक ही इन्द्रिय की आसक्ति उन्हें जीवन भर कप्टदायिनी सिद्ध होती है तो जो पांचों इन्द्रियों के विषय में आसक्त हो जाता है उसका क्या हाल होगा? वह कितने कष्ट पायेगा ? कितनी वेदनाएं सेलेगा ? इसका कोई अता-पता भी नहीं !
तो इस तरह भोगों के दुष्परिणामों का चिंतन कर उनके प्रति मन की। लालसा, मन का आकर्षण कम करें। भोगों से मन को हटायें ! यह भोग , विरक्ति की दूसरी साधना है।
वीतराग भाव की प्राप्ति की तीसरी साधना है.---आत्म-स्वरूप रमण। .
साधक परभाव से पराइ मुग रहकार सदा निज स्वरूप में ही रमण करता । रहता है, आत्मा के शिवाय उसका अन्य कोई केन्द्र ही नहीं रहता अतः अष किसी विषय में उसे कोई आकर्षण भी नहीं रहता अप्पा अप्पम्मिरमओ-भाना आत्मा में ही रमती रहती है, जड़ वस्तु पर होती है, इसलिए वह 'र' में कोई मानन्द य रस का अनुभव करे भी कसे? इस दशा में मेराय, विषय चिमुरता महज में आती है, हां इनकी भूमिका में उरत टोनो सारा रहतजिन्नु जोगनी दशा प्राप्त होने के बाद पूर्व वस्तुओं का नि.मर..
जगाने की जरूरत नहीं रहती । यह सहन राम होता है।