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प्रायश्चित्त तप
३६५ - साधक-जीवन में जब ये चार प्रकार की आपत्तियां आती हैं तो न चाहते हुए भी विवश होकर उसे अपने कल्प के विपरीत आचरण करना पड़ता है। ऐसे समय में हिंसा, जलतरण, विद्या प्रयोग, आदि करके स्वयं की, संघ की एवं राष्ट्र की रक्षा करनी पड़ती है। उसमें दोपसेवन से आनन्द व सुस प्राप्ति की भावना नहीं, किन्तु संयम व संघ रक्षा की भावना रहती है। इसीलिए बहलल्प भाप्य के कर्ता आचार्य संघदास गणी ने 'प्रतिसेवना के दो मूल भेद कर दिये हैं
रागद्दोसाणुगता तु दम्पिया फप्पिया तु तदभावा ।
आरापतो तु फापे, विराधतो होति दप्पेणं ॥१ रागत पपूर्वक की जाने वाली प्रतिसेवना दपिका है और रागढ़ प से रहित (आपत्ति काल में परिस्थितिवश निषिद्ध आचरण करने पर) प्रतिसेवना कल्पिका है। नाल्लिका प्रतिरोवना में संयम को विगधना नहीं है, किन्तु चपिगता में निश्चित ही संयम की विराधना है।
भापत्प्रतिमेयना में आनायं में उक्त कथन को आधार मानारही भार ग्रन्गों में गिर ना बनारमा आदि अनेम पवाद मागा गा उल्लंग निगा है।
शान्ति प्रतिरोपना- करंगे योग्य आहार आदि में मंहार मंदिर हो जाने पर भी जो महण मारना ।
७ सहमापार प्रतिसेयनामा अकस्मात भोई माय जाति हो नाममा निमा चोगे-समझो निलम विगार देगा। मा अतिसेवनाने अभिप्राय
मानिया सपा बम, मा भारतमा का प्रदेश प्रतिमेवनी - मी मशिग आदि
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२.
गाय या TETA
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