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प्रतिसंलीनता तप
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अभिमान की चौथी बुराई है - मनुष्य अहंकार में अपने को बड़ा समझता है और दूसरों को छोटा - तुच्छ ! स्वयं बलहीन, रूपहीन, गुणहीन होने पर भी मानता है कि मैं तो वल में बाहुबली हूं, रूप में सनत्कुमार हूं, और सब गुणों का खजाना मैं ही हूं। दूसरा बलवान है, वह भी तुच्छ है, कमजोर है, दूसरा रूप में देव कुमार हैं, अप्सरा है फिर भी अभिमानी की नजर में वह रूप होन है । अहंकारी हमेशा-अन्नं जणं पस्सति विवम्यं' दूसरों को परछाई मात्र ( प्रतिविम्ब) समझता है, वलिष्ठ पुरुष को भी गोवर- गणेश समझता है । अभिमानी सोचता है
संसार में बुद्धिमान कौन ? जो मेरी तरह सोचे
संसार में मूर्ख कौन ? जिसके विचार मुझ से न मिलें । आदर्श क्या है ? जिस पर मैं चलू ं !
जगत में श्रेष्ठ कौन ? 'मैं'
उसके हृदय में "मैं के सिवाय और कोई ध्वनि ही नहीं उठती । जितनी श्रेष्ठता है, सब उसमें हैं बाकी सब संसार तुच्छ है, गुणहीन है । वह सोचता हे "दुनियां में डेढ़ अक्कल है— एक मेरे पास, आधी बाकी दुनिया के पास ।" राजस्थानी में कहावत है, अभिमानीनि स्त्री सोचती है- "म्हांसू गोरी जिकै ने पीलिये रो रोग" इस प्रकार अभिमानी व्यक्ति दो भूलें एक साथ करता है, स्वयं को अधिक बुद्धिमान समझ कर और दूसरे बुद्धिमानों को मूर्ख समझ कर । वह घमण्ड में दूसरों का अपमान करता है, उन्हें तुच्छ शब्द कहता है। आप जानते हैं, अपमान का कड़वा घूंट कोई व्यक्ति पी नहीं सकता । अंग्रेजी कहावत है - इनसल्ट इज मोर देन आप्रेशन - ( Insult is more then operation) अपमान का नस्तर आप्रेशन के नस्तर से भी अधिक दुःखदायी व पीड़ा कारक है । अपमानित व्यक्ति फिर बदला लेने की चेष्टा करता है, इस प्रकार वैर विरोध व दुश्मनी की लम्बी श्रृंखला चालू हो जाती है ।
अभिमान को इन चारों बुराइयों का विचार करके मनुष्य को अभिमान का त्याग करना चाहिए और अभिमान के कारणों से बचना चाहिए ।
१ सुत्रकृतांग १११३८