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ध्यान तप
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चार अनुप्रेक्षाएं मन को धर्म ध्यान में लीन बनाने के लिए जो चितन किया जाता हैउसे अनुप्रेक्षा कहते हैं । ईक्षा-नाम है दृष्टि का, देखने का । इसके साथ जब प्र उपसर्ग लगा दिया तो उसका अर्थ हुआ-खूब गहराई से देखना,वारीको से
और तल्लीनता के साथ देखना-'प्रेक्षा' है । वह तल्लीनता किसी अन्य विषय में न होकर अपनी आत्मा के विषय में ही होनी चाहिए। आत्मा
और परमात्मा से सम्बन्धित जो सूक्ष्मचिंतन, जो विचारों की तल्लीनता है, उसे ही 'अनुप्रेक्षा' कहा गया है । अनुप्रेक्षा-को ‘भावना' भी कहते हैं । मन में इस प्रकार की भावनाएं करना, चिंतन मनन करके विचारों को विशुद्ध तथा मोह-मुक्त बनाने का प्रयत्न करना-भावना का फल है । इसलिए अनुप्रेक्षा के द्वारा आत्मा वैराग्य प्रधान विचारों में लीन हो जाता है, कुछ समय के लिए, जब तक कि लीनता बनी रहती है वह वीतरागभाव जैसा आनन्द लेने लगता है और संसार की मोह-ममता को भूल जाता है । धर्म ध्यान के इच्छुक साधक को इन भावनाओं-अनुप्रेक्षाओं का निरंतर अभ्यास करना चाहिए । यहां धर्मध्यान की चार भावनाएं बताई जा रही हैं
१ एकत्वानुप्रेक्षा-आत्मा के एकाकीपन का चिंतन करना । जैसेमेरा आत्मा अकेला जन्मा है, अकेला मरेगा, अकेला कर्म करता है और अकेला ही भोगेगा। इसलिए संसार के किसी भी अन्य के साथ-परिवार, पुन, धन, आदि के साथ अपनापन जोड़ना, उन्हें अपना समझना अज्ञान है । मोह है, इसी मोह के कारण सब दुख उठाने पड़ते हैं। नमिराजपि ने जब यह सूब समझा--कि "आत्मा एकाकी है, कोई किसी का नहीं। एकत्व में आनन्द है, दो में दुल है"---तो इसी चिंतन में लीन होकर उन्होंने अपने दुःख का किनारा पा लिया और परम शांति प्राप्त कर ली। यह. एकत्वानुप्रेक्षा की धारा है।
२ अनित्यानुप्रेक्षा-वस्तु की अनित्यता का चितन करना । शरीर, धन .. आदि सब नागमान है, कोई भी वस्तु स्थिर नहीं, सब क्षणिक है, क्षण-क्षणनाश हो रही है। यह शरीर जो कभी वालमा था, युवा हुआ, और बुद्ध होकर