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परिशिष्ट २
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निउणो वि जीव पोओ, तव संजम मारु विहूणो ।
शास्त्रज्ञान में कुशल साधक भी तप, संयम रूप पवन के बिना संसार
सागर से तैर नहीं सकता ।
कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं ।
- आवश्यक नियुक्ति ६६
-आचारांग १४५३
तप के द्वारा अपने को कृश करो, तन-मन को हल्का करो। अपने को जीर्ण करो, भोगवृत्ति को जर्जर करो ।
अप्पपिण्डाति पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्वए ।
सुव्रती साधक कम खाए, कम पीये और कम बोले ।
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- सूत्रकृतांग १८१२५
णी पाणभोयणस्स अतिमत्तं आहारए सया भवई ।
- स्थानांगसूत्र ब्रह्मचारी को कभी भी अधिक मात्रा में भोजन नहीं करना चाहिए । अहये तवे चैव ।
भनीकन
भीतर की नहीं दिया
तप से पूर्व कर्मों का नाश होता है। जं मे तव नियम -संजन-सभाय-काणाध्वस्तव मादीएमु जोगेसु जयना, सेत्तं जत्ता ।
को घना
ना
भगवतीसून १८१५
तप, नियम, म, स्वाध्याय, प्यान, आवस्यक आदि योगों में जो ना विवेकयुक्त प्रवृति के यह मेरी
विकास
है।
भोती तब संजमुना ।
भीतो
भरं न नित्यया ।
- भगवती २२६
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प्रकरण रि
बेटा है। मी