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________________ परिशिष्ट २ १८ १६ २० २१ २२ २३ निउणो वि जीव पोओ, तव संजम मारु विहूणो । शास्त्रज्ञान में कुशल साधक भी तप, संयम रूप पवन के बिना संसार सागर से तैर नहीं सकता । कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं । - आवश्यक नियुक्ति ६६ -आचारांग १४५३ तप के द्वारा अपने को कृश करो, तन-मन को हल्का करो। अपने को जीर्ण करो, भोगवृत्ति को जर्जर करो । अप्पपिण्डाति पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्वए । सुव्रती साधक कम खाए, कम पीये और कम बोले । ૫૩૭ - सूत्रकृतांग १८१२५ णी पाणभोयणस्स अतिमत्तं आहारए सया भवई । - स्थानांगसूत्र ब्रह्मचारी को कभी भी अधिक मात्रा में भोजन नहीं करना चाहिए । अहये तवे चैव । भनीकन भीतर की नहीं दिया तप से पूर्व कर्मों का नाश होता है। जं मे तव नियम -संजन-सभाय-काणाध्वस्तव मादीएमु जोगेसु जयना, सेत्तं जत्ता । को घना ना भगवतीसून १८१५ तप, नियम, म, स्वाध्याय, प्यान, आवस्यक आदि योगों में जो ना विवेकयुक्त प्रवृति के यह मेरी विकास है। भोती तब संजमुना । भीतो भरं न नित्यया । - भगवती २२६ WA प्रकरण रि बेटा है। मी
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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