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जैन धर्म में तप
(४) रस परित्याग-प्रणीत, स्निग्ध एवं अति मात्रा में भोजन का त्याग ।
(५) काय क्लेश---शरीर को विविध आसन आदि के द्वारा कष्ट.. सहिष्णु बनाकर साधना तथा उसकी चंचलता कम करना।
(६) संलोनता- शारीर, इन्द्रिय, मन वचन आदि तथा कपाय आदि .. का संयम करना, एकांत शुद्ध स्थान में रहना । '
वाह्य तप के ये छह भेद हैं । इनका विस्तार दूसरे अध्याय में किया जा रहा है।
आभ्यन्तर तप के छह भेद आभ्यन्तर तप के छह भेद इस प्रकार हैं
अभिन्तरए तवे छबिहे पण्णत्ते तंजहा-१ पायच्छित्तं, विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्ज्ञाओ।
झाणं विउस्सग्गो। (१) प्रायश्चित्त-दोष विशुद्धि के लिए सरलतापूर्वक प्रायश्चित्त आदि
करना।
(२) विनय-गुरुजनों आदि का आदर, बहुमान एवं भक्ति करना । (३) वयावृत्य-गुरु, रोगी, बालक, संघ आदि की सेवा करना । (४) स्वाध्याय-शास्त्रों का अध्ययन, अनुचितन एवं मनन करना । (५) ध्यान-मन को एकाग्र कर शुभ ध्यान में लगाना ।
(६) व्युत्सर्ग-यपाय आदि का त्याग करना, शगीर की ममता छोड़कर उसे साधना में स्थिर करना एवं आवश्यक होने पर संघ आदि का भी त्याग करना।
माभ्यन्तर तप के यह छह भेद है। जैसा कि पूर्व बताया गया हैइनका अधिक सम्बन्ध मन के साथ आता है, अन्तरंग मुन्द्धि और अन्तरंग दोपों का परिहार इनका विशेष फल है इसी कारण इन छह तपों को आभ्यन्तर तप कहा है।
भगवती चूम २५७