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कायवलेश तप
२६३ तन से दैत्य का अर्थ-विकराल शरीर से नहीं, किन्तु सहिष्णु और कठोर शरीर से है । शरीर से इतना सहिष्णु हो, कि धूप, वर्षा, सर्दी आदि के भयानक कष्टों से भी विचलित न हो, और मन इतना सुन्दर, सुकुमार हो कि देवता तुल्य रहे । इसी भाव को संस्कृत की प्रसिद्ध सूक्ति में यों कहा गया है
वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि वन से भी कठोर और फूल से भी कोमल-अर्थात् कष्ट सहने में वज्र जैसे और दया करुणा में फूल जैसे ।
तो साधक को कष्टसहिष्णु होना चाहिए। और यह सहिष्णुता का अभ्यास कायक्लेश से बढ़ता है । काय क्लेश से तितिक्षा का भाव प्रखर बनता है। शास्त्र में कहा है-तितिखंपरमं णच्चा-- ____ तितिक्षा साधक का परम धर्म है । साधक होकर तितिक्षु नहीं है, सहिष्णु नहीं है, कष्टों में धैर्य नहीं रख सकता तो वह साधना नहीं कर सकता। तप का मूल ही धृति है-तवस्स मूलं घितिर धैर्य, साहस और सहिष्णुता यही तप की जड़ है। इसलिए शास्त्रों में स्थान-स्थान पर सहिष्णुता का उपदेश दिया गया है
सहिओ दुक्खमत्ताए पुट्ठो नो संझाए' दुःख आने पर, दुःखों से घिर जाने पर भी साधक विचलित न हो।
दुखेण पुढें धुवमायएज्जा शरीर को दुःखों का स्पर्श होने पर ध्रुवता-ध्रुव के जैसी स्थिरता धारण करें।
ये सब उपदेश, शिक्षाएं और शास्त्र वचन यही बात सिद्ध करते हैं कि साधक को कष्टों के लिए स्वयं को साधना पड़ता है,सोने की भांति कष्टों की
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१ सूत्र कृतांग शा२६ २ निशीय चूणि ८४ ३ आचारांग ११३१३ ४ सूमकृतांग २७२६