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प्रतिसंलीनता तप
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स्वामीजी-'ठीक कह रहा हूँ ! मैं इस संसार में मनुष्यों को बन्धन में डालने के लिए नहीं, किन्तु मुक्त कराने के लिए आया हूं।"
तो यह तीसरी श्रेष्ठ श्रेणी है। क्रोध के हजारों प्रसंग आने पर भी वे शांत प्रशांत रहते हैं।
क्रोधोत्पत्ति के कारण क्रोध प्रतिसंलीनता में दो बातें कही गई है
फोहोदय निरोहो वा उदयप्पत्तस्स वा फोहस्स विफलीकरणं १ क्रोध के उदय को रोकना २ उदय में आये हुए क्रोध को विफल-फलहीन बना देना।
क्रोध का उदय रोकने के लिए यह भी समझना जरूरी है कि क्रोध का उदय क्यों होता है और उसके कटुफल कितने घातक होते हैं ।
फर्म सिद्धान्त की दृष्टि में जैन दर्शन कार्य-कारणवादी दर्शन है, उसका कथन है-- प्रत्येक कार्य का कुछ कारण भी अवश्य होता है। यह कार्य कारणवाद ही कर्म सिद्धान्त की आधार भूमि है। कार्य हमें स्पष्ट दिखाई देता है, कारण उसके पीछे छुपा रहता है । इस दृष्टि से आत्मा में क्रोध का उदय होने रूप जो कार्य होता है, उसका कारण है-कर्म ! आठ कर्मों में मोहनीय कर्म सबसे मुख्य व सवका नेता माना गया है। मोहनीय कर्म की प्रकृतियों में चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं-जिसमें कपाय मोहनीय के १६ भेद बताये हैं और नौ कपाय मोहनीय के है। नौकषाय मोहनीय कपाय भाव का उत्तेजक होता है। हां तो १६ कपाय मोहनीय के भेदों में प्रत्येक कपाय के-चार-चार भेद करके १६ भेद वताये गये हैं। क्रोध कपायमोहनीय के उदय से आत्मा में कपाय भाव का उदय होता है । जिस आत्मा में कपाय मोहनीय का जितना उदय होगा उसी के अनुसार उसके क्रोधोदय में भी तरतमता रहती है । यह क्रोधोत्पत्ति का दार्शनिक कारण है।
व्यावहारिक दृष्टि में स्थानांग सूत्र में सामान्यतः फोघोत्पत्ति के चार कारण बताये हैं१ क्षेत्र--स्थान आदि के कारण क्रोध को उत्पत्ति हो सकती है।