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जैन धर्म में तप
को यदि मिथ्याभिनिवेश हो तो वह पर सिद्धान्त के दोपों को न समझकर गुरु को पर-सिद्धान्त का निन्दक भी समझ सकता है। . .. __३ संवेगनीधर्मकथा-जिसके द्वारा विपाक की विरसता बताकर श्रोताजन में वैराग्य उत्पन्न किया जाये, वह संवेगनी धर्म कथा है । इसको संवेजनी तथा संवेदनी भी कहते हैं । इसके चार भेद हैं ? .
(१) इहलोकसंवेगनी, (२) परलोकसंवेगनी (३) स्वशरीरसंवेगनी, (४) परशरीरसंवेगनी। (क) मनुष्य शरीर एवं भोगों को असारता तथा अस्थिरता बताकर वैराग्य -
पैदा करना इहलोकसंवेगनीकथा है । (ख) देव भी पारस्परिक ईर्ष्या, भय और वियोग तथा तृष्णा आदि के दुःखों
से दुखी हैं। उन्हें भी मरकर मनुष्य तिर्यञ्च रूप दुर्गति में जाने की एवं गर्भ तथा जन्म सम्बन्धी घोर कष्ट उठाने की चिन्ता लगी रहती है-इस प्रकार परलोक का स्वरूप बताकर वैराग्य उत्पन्न करना
परलोकसंवेगनीकथा है। (ग) यह शरीर स्वयं अशुचिरूप है, अशुचि (रजवीर्य) से उत्पन्न हुआ है
और अशुचि का कारण है-- इस प्रकार मानव शरीर के स्वरूप को
वताकर वैराग्य उत्पन्न करना स्वशरीरसंवेगनीकथा है। (घ) किसी मृत शरीर (मुर्दा) के स्वरूप को समझ कर वैराग्य उत्पन्न . करना परशरीरसंवेगनीकथा है।
४. निवेदनोधर्मकथा-इहलोक-परलोक में प्राप्त होने वाले पुण्य-पाप के शुभाशुभ फलों को समझाकर संसार में उदासीनता पैदा करना निवेदनी घमंगाया है । इसके चार भेद हैं ? (क) इस भव में किये गये चोरी-जारी आदि दुष्कर्म एवं दानादि सत्कर्म
यहीं फल जाते हैं। जैसे-चोरी-जारी से बदनामी तथा अशान्ति मिलती है और तीर्थकरादि महामुनियों को दान देने से मन की प्रसन्नता एवं स्वर्णादि द्रव्य प्राप्त होते हैं। तपस्या से अनेक प्रकार को लब्धिया मिलती हैं। इस प्रकार का वर्णन करने वाली कथा प्रथमनिवेदनीराया है।