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जैन धर्म में तप
जंगल में उसी अंधकूप से बालक की लाश मिली और फिर बाल-पातरू विजय चोर भी पकड़ लिया गया। चोर के हाथ पैरों में बंधन डालकर कारावास में डाल दिया गया । पुत्र शोक में सेठ-सेठानी सिर-छाती पीटकर रह गये। जो गर गया उसका अब क्या हो ?
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एक बार किसी व्यापारिक अपराध में धन्य सेठ भी पकड़ा गया। उसे उसी कारागार में विजय चोर के साथ एक ही बंधन से बांध दिया गया । सेठ के घर से भोजन आया देखकर विजय चोर के मुंह में भी पानी छूटा भूख से वह व्याकुल हो रहा था । सेठ से प्रार्थना की- "शेठ ! यहां तो हम दोनों ही बंदी हैं, एक समान हैं। मुझे भी भूख लगी है, थोड़ा सा भोजन दे दो तो मेरे पेट की आग भी शांत हो जाय ।"
पुत्र घातक विजय चोर की प्रार्थना पर सेठ आग-बबूला हो गया । उसने खूब डांटा, फटकारा और दुत्कार कर कहा - "मेरा अन्न बनेगा तो कुत्तों को डाल दूंगा, किन्तु तुझ दुष्ट को नहीं दूंगा ।"
विजय चुप रहा । सेठ ने भोजन कर लिया । संध्या के समय सेठ को शरीर चिता के लिए जाने की इच्छा हुई। उसका एक पैर तो विजय पोर के साथ बंधा था, उसके बिना वह अकेला कैसे चला जाता ? सेठ बड़ी दुविधा में पढ़ गया । उसने विजय से अपने साथ चलने के लिए कहा। विजय ने मुँह बनाकर कहा-- समय तो अकेले सावा, और जाते समय मुझे भी बुला रहे हो क्यों जावू ? जो खायेगा वह जायेगा ? सेठ वही परेशानी में फंस गया। शरीर का पेट दुखने लगा । बहुत अजीजी करने पर भी जब विजय उसके साथ जाने को तैयार नहीं हुआ तो क सेठ ने उसे भोजन में से कुछ हिस्सा देना स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन के अनुसार सेठ ने मन कर भी वि अपना कुछ भोजन दिया। भोजनानेनेही नहीं देया गण । उसने जाकर सेठानी से होने बागभाग हो गई।
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पर की यह भोजन देता है। सेवी र
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