________________
E
मिल गया | मांगने पर भी यदि नियमों के अनुकूल मिले तो लेवें, अन्यथा खाली हाथ लौट आवे । साधु की 'मिक्षाचरी' के नियम बहुत ही कठोर और बहुत ही सूक्ष्म है । उनका पूरा विचार करके ही साधु आहार आदि ग्रहण करता है । और वैसी भिक्षाचरी ही तप कहलाती है। यहां पर हम आगमों में वर्णित भिक्षाचरी के दोषों की कुछ चर्चा करेंगे ताकि उसका असली स्वरूप परिज्ञात हो सके ।
साधु जो भिक्षा की याचना करता है, उसे 'एपणा' कहते हैं । 'एंपणा' में तीन शब्द आते हैं
जैन धर्म में
गवसणा- गाय की भांति आहार प्राप्त करना ।
ग्रहणपणा - ग्रहण करते समय उसकी शुद्धाशुद्धि का विवेक रखना ।
परिभोगेपणा - आहार करते समय भोजन के दोष टालकर समतापूर्वक प्राप्त आहार का भोग करना ।
गवसणाए गहणे य परिभोगेसणाय य । आहारोवहिसेज्जाए एए तिनि विसोहए || उग्गमुप्पायणं पढमे बीए सोहेज्ज एसणं । परिभोयम्मि चउक्कं विसोहेज्ज जयं जई ॥
इन तीनों एपणाओं का वर्णन करते हुए उत्तराध्ययन में बताया गया है.
उत्तराध्ययन २४|११-१२
तप
आहार, उपधि, शय्या आदि प्राप्त करते समय भिक्षु गवेपणा, ग्रहणपणा ओर परिभोगपणा की शुद्धि का विवेक रसे । उद्गम के, उत्पादन के, एणा के और परिभोग के जो-जो दोष हैं उन्हें सर्वथा दूर करता हुआ विशुद्धरीति से गोचरी करें |
(१) १६ उद्गम दोद े उद्गम दोष का अर्थ है आहार को उत्पत्ति
१
२ वाहक मुद्देसिय
कम्मे व नीसजाए व ।
aar genre पालोयर की पामि ॥ उभिन मानोहटे इय ।
परिषट्टिए अभि अरिने अनिमिट्ठे
मे ||
-निवृक्ति ६२