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________________ २८० जैन धर्म में तप कभी-कभार वह विगय ग्रहण भी कर सकता है, किन्तु नित्य नहीं । नित्यप्रति विगय का सेवन करना दोष है। इसलिए कभी-कभी विगय ग्रहण करें और कभी विगय का त्याग करें। विगय का त्याग करना रसपरित्याग तप का पहला कम है। उववाई सुत्र में इसके नौ क्रम बताये हैं- .. १ निर्वितिक-विगय का त्याग करना । विगय का वर्णन पूर्व में किया चा पुका है। २ प्रणीत आहार का त्याग-जिस भोजन में मृत आदि टपकता हो, जो अति स्निग्ध और बल वीर्य बढ़क भोजन हो उसका त्याग करना । ३ आयंबिल-नमक एवं विगय आदि का त्याग कर सिर्फ भुना हुमा गा. रंधा हुआ एक प्रकार का भोजन पानी के साथ लाना। इसमें स्वादविजय की विशेष भावना रहती है। ८ आयामसित्य भोई-धान्यादि के घोषण में से कुछ अंग (बयया । ___ कण) ग्रहण गार भूख मिटाना। ५. अरसाहार-रहित भोजन करना, जो धोका, बिना नमन म बिना मिर्च मसाले का स्वाद रहित भोजन । जैसे उमद ने बापले, भुने गरे, फुल्माप आदि । ६ विरताहार-~-गिल भोजन मास विगढ गा हो, बागी, बाद भोजन करना। संताहारको आमिर- सना दुआ आहार लेना । अपवा गना, दिया कि जो कि अंतिम बने रहोगे। - हाहा:..मनोमा पाने के बाद में अंत में न ... महारामा - Pार--- दिना का भी निगम सदर
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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